: जेठ : २४९२ आत्मधर्म : २३ :
वैराग्यना वेगथी आत्मा तरफ वळे छे एटले तेनामां समता अने द्रढता सहेजे आवी
जाय छे. जगतनो कोई प्रसंग तेना आत्मार्थने तोडी शकतो नथी.
अनिलकुमार जैन (नं. २०प) लखे छे के– ‘बालविभाग’ खुल्या पछी हुं
आत्मधर्म खुब रसपूर्वक वांचुं छुं ‘दर्शनकथा’ वांच्या पछी रोज जिनमंदिरे जवानी
भावना थाय छे. (–बालविभागना सभ्योने कार्ड मोकलवानी आपनी सूचना मळी;
त्यार पहेलां ज अमे ते योजना विचारी राखेल छे. कार्ड तैयार थई रह्या छे. कार्ड
जोईने बधा बाळको खुश–खुश थई जशे.)
पालनपुरथी (सभ्य नं. २०२) हर्षिदाबेन लखे छे के “आत्मधर्मनो
बालविभाग रसपूर्वक वांचुं छुं;” मेट्रिकमां पास थई हवे आगळ जवाने बदले में
परमार्थ मार्ग आराधवानो निश्चय कर्यो छे. मारा पू. पिताजी पण धर्ममां रस ले छे ने
मने समजावे छे...” दर्शनकथा’ वांची; ते वांची भगवानना दर्शन करी पछी बीजा काम
करवानो निश्चय आजथी करुं छुं.”
बहेन, तमारी भावना माटे धन्यवाद! माता–पिता पोताना बाळकोने धार्मिक
संस्कारोनुं सींचन करे एवुं वातावरण जैनसमाजमां घर–घरमां प्रसरे एम ईच्छीए.
तमारा प्रश्नो तथा काव्य पण मळ्युं. काव्यमां लखेली भावना सारी छे; अवकाश हशे तो
‘आत्मधर्म’ मां क््यारेक लईशुं.
प्रश्न:– सद्गुरुने ओळखवा शुं करवुं जोईए? (बीजानो अभिप्राय मान्या
विना पोते शुं करवुं?)
उत्तर:– वीतराग स्वभावनी आराधनारूप जेनुं जीवन होय अने जेमना
उपदेशने अनुसरतां पोताना आत्मानुं हित थाय छे–एम पोताने लागे एवा संतने
सद्गुरु तरीके ओळखवा. (अहीं आपणे आत्मज्ञानी संतने सद्गुरु गणीने वात करी
छे. देव–गुरु–शास्त्रमां गुरु तरीके रत्नत्रयधारी मुनि भगवंतोने स्वीकारीए छीए.)
ज्ञानी संतनी खरी ओळखाण तेमना साक्षात् परिचय वडे थाय छे. श्रीमद् राजचंद्रनुं
एक वचन छे के “मुमुक्षुनां नेत्र महात्माने ओळखी ल्ये छे.”
वळी बीजानो अभिप्राय जेओ माने छे तेओ पण पोताने ते अभिप्राय बेठो
त्यारे माने छे ने? आत्महितनी साची जिज्ञासा पोतामां जागे. एटले आत्महितनो
मार्ग देखाडनारा गुरुने ते ओळखी ज ल्ये; अने आत्मानुं अहित करनारा कुगुरुनी
वात तेने बेसे ज नहीं.