Atmadharma magazine - Ank 272
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 32 of 65

background image
: जेठ : २४९२ आत्मधर्म : २९ :
षटखंडागमरूप अमृतनुं फळ
सर्वज्ञ परंपराथी आवेला षटखंडागमनी प्रमाणीकता बतावीने,
अने ते जिनवाणीरूप अमृतना अभ्यासनुं फळ मोक्ष बतावीने
आचार्यदेवे मोक्षाभिलाषी भव्यजीवोने तेना अभ्यासनी भलामण करी
छे. आ संबंधमां पुस्तक ९ पृष्ठ १३२–१३३ मां श्री वीरसेनस्वामी,
वीरजिनेन्द्रना मोक्षगमन पछी लोहाचार्य सुधीनी परंपरा बतावीने
पछी कहे छे के लोहाचार्यनुं स्वर्गगमन थतां आचारंगरूपी सूर्य अस्त
थई गयो. आ रीते भरतक्षेत्रमां बार अंगरूप सूर्यनो अस्त थई जतां
बाकीना आचार्यो बधा अंग–पूर्वना एकदेशभूत ‘
पेज्जदोष’ अने
महाकम्मपयडि पाहुड’ वगेरेना धारक थया. आ रीते प्रमाणीभूत
महर्षिरूप प्रणालीद्वारा आवीने महाकर्मप्रकृति–प्राभृतरूपी–अमृतजल–
प्रवाह धरसेन भट्टारकने प्राप्त थयो.
तेमणे पण गिरिनगरनी चन्द्रगूफामां सम्पूर्ण महाकर्मप्रकृति–
प्राभृत भूतबलि अने पुष्पदन्त मुनिओने अर्पित कर्युं. पछी, श्रुतरूपी
नदीना प्रवाहना व्युच्छेदना भयथी भूतबलि भट्टारके भव्यजनोना
अनुग्रह–अर्थे महाकर्मप्रकृति–प्राभृतनो उपसंहार करीने छह खंड
(
षटखंडागम) नी रचना करी. आथी त्रिकाळविषयक समस्त पदार्थोने
विषय करनारा प्रत्यक्ष अनंत केवळज्ञानवडे प्रभावित होवाथी अने
प्रमाणीभूत आचार्योनी परंपराथी आववाने कारणे, द्रष्ट के ईष्ट
विरोधना अभाव होवाथी आ ग्रंथ प्रमाणरूप छे.
(आ प्रमाणे षटखंडागम नी प्रमाणीकता सिद्ध करीने तेना
अभ्यासनी भलामण करतां श्री वीरसेनस्वामी कहे छे के–)
आ कारणे मोक्षाभिलाषी भव्य जीवोए आनो अभ्यास करवो
जोईए. परंतु “आ ग्रंथ तो अल्प छे (बार अंगनो थोडोक ज भाग
छे) तेथी ते मोक्षरूप कार्यने उत्पन्न करवामां असमर्थ छे” –एम शंका न
करवी; केमके. अमृतना सो घडा पीवानुं जे फळ छे ते एक अंजलिप्रमाण
अमृत पीवामां पण प्राप्त थाय छे.