
आचार्यदेवे मोक्षाभिलाषी भव्यजीवोने तेना अभ्यासनी भलामण करी
छे. आ संबंधमां पुस्तक ९ पृष्ठ १३२–१३३ मां श्री वीरसेनस्वामी,
वीरजिनेन्द्रना मोक्षगमन पछी लोहाचार्य सुधीनी परंपरा बतावीने
पछी कहे छे के लोहाचार्यनुं स्वर्गगमन थतां आचारंगरूपी सूर्य अस्त
थई गयो. आ रीते भरतक्षेत्रमां बार अंगरूप सूर्यनो अस्त थई जतां
बाकीना आचार्यो बधा अंग–पूर्वना एकदेशभूत ‘
प्रवाह धरसेन भट्टारकने प्राप्त थयो.
नदीना प्रवाहना व्युच्छेदना भयथी भूतबलि भट्टारके भव्यजनोना
अनुग्रह–अर्थे महाकर्मप्रकृति–प्राभृतनो उपसंहार करीने छह खंड
(
प्रमाणीभूत आचार्योनी परंपराथी आववाने कारणे, द्रष्ट के ईष्ट
विरोधना अभाव होवाथी आ ग्रंथ प्रमाणरूप छे.
छे) तेथी ते मोक्षरूप कार्यने उत्पन्न करवामां असमर्थ छे” –एम शंका न
करवी; केमके. अमृतना सो घडा पीवानुं जे फळ छे ते एक अंजलिप्रमाण
अमृत पीवामां पण प्राप्त थाय छे.