Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : अषाढ : २४९२
छे, तेवो ज मारो आनंद छे. जेवुं आपनुं स्वरूप छे तेवुं ज मारुं स्वरूप छे.
स्वभावना सामर्थ्यमां आपनामां ने मारामां रंचमात्र फेर नथी. आवा
निजस्वभावनी प्रतीतना बळथी, जेवुं परमात्मस्वरूप आपे प्रगट कर्युं छे
तेवुं ज हुं पण प्रगट करवानो छुं. अने जे जीवो आवा परमात्मस्वरूपनी
प्रीति अने प्रतीत करशे तेओ पण जरूर परमात्मा बनी जशे. एवा
कोलकरार छे. (सभाजनोए हर्षपूर्वक आ वातने वधावी लीधी.)
(११९) हे भाई! आत्महित साधवानो आ उत्तम अवसर छे. माटे सावधान थईने
आत्महितमां तत्पर था. (१) घडपण आव्या पहेलां, (२)–ईन्द्रियोनी
शक्ति शिथिल थया पहेलां तथा (३) रोगादि प्रतिकूळता आव्या पहेलां
आत्मकल्याण करी लेवा जेवुं छे.
(१२०) जेणे आत्माना ज्ञानस्वभावनो निर्णय थयो, तेने मोक्षतत्त्वनो निर्णय थयो,
अने तेने रागनी ने परनी पृथकतानुं भान थयुं एटले तेनो ते कर्ता न रह्यो,
रागमांथी ने परमांथी तेनुं कर्तृत्व ऊडी गयुं, ज्ञानभावरूप परिणमन रह्युं.
एटले तेमां मोक्षमार्गनो वीतरागी पुरुषार्थ आवी गयो. आ रीते
ज्ञानस्वभावना निर्णयमां मोक्षमार्ग आवे छे, ने ज्ञानस्वभावना निर्णय
वगर कदी मोक्षमार्ग थतो नथी. माटे सर्व उद्यमथी वारंवार अभ्यासवडे
ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करवो, अनुभव करवो. (स्वसन्मुख थईने
स्वानुभव सहितनो निर्णय ते ज सम्यक् निर्णय छे.)
(सभ्य नं. पप० पासेथी मळेल चर्चाना आधारे.)
* * * * *
हे साधक!
मोक्षने साधवा माटे जगतनो संग छोडी
अंतरनी एकत्व भावनावडे एकलो एकलो मोक्षने
साधजे. एकलो न रही शकाय तो धर्मात्माना
संगमां रहेजे, पण बीजानो संग करीश नहि.