Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९२ आत्मधर्म : १७ :
परम शांतिदातारी
अध्यात्म भावना
आत्मधर्मनी सहेली लेखमाळा
(लेख: नं: ३७ अंक: २७२ थी चालु)
भगवान श्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधिशतक’ उपर पू. गुरुदेवना
अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा शुं छे ने तेनो अनुभव केम थाय ते वात
पूज्यपादस्वामीए आ समाधिशतकमां सहेली रीते वर्णवी छे. आत्माना अतीन्द्रिय
सुखनी जेने अभिलाषा छे एवा जीवोने माटे रागादिथी भिन्न शुद्ध आत्मस्वरूपनुं
वर्णन कर्युं छे. वस्त्रनां द्रष्टांते देहादिथी भिन्न आत्मस्वरूप बतावीने कहे छे के जेनो
उपयोग आवा आत्मस्वरूपमां लागेलो छे ते ज परम शांतिसुखने अनुभवे छे, बीजा
नहि. आवो अनुभव करनार ज्ञानी केवा होय? तो कहे छे के–
यस्य सस्पंदमाभाति निःस्पंदेन समं जगत्।
अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतरः।।६७।।
जे ज्ञानीने शरीरादिनी अनेक क्रियाओ वडे सस्पंद एवुं आ जगत काष्ट वगेरे
समान निस्पंद अने जड भासे छे, ते ज परम वीतरागी सुखने अनुभवे छे; तेना
अनुभवमां ईन्द्रियोना व्यापाररूप क्रिया नथी, के ईन्द्रियविषयोनो भोगवटो नथी.
उपयोग ज्यां अंतरमां वळीने आत्माना आनंदना अनुभवमां एकाग्र थयो त्यां देहादि
तरफनुं लक्ष ज छूटी जाय छे, एटले तेने तो आ जगत निश्चेतन भासे छे.–आवा ज्ञानी
ज अंतर्मुख उपयोग वडे आत्मिक सुखने अनुभवे छे; मन–वचन–कायानी क्रियाने
पोतानी माननार अज्ञानी बहिरात्मा जीव चैतन्यना परमसुखने अनुभवी शकतो नथी.
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा अशरीरी छे, तेने साधवावाळा जीवने ज्यां शुभनोय रस
नथी त्यां अशुभ परिणामनी तो वात ज शी? जेने आत्माना स्वरूपनी रुचि थई तेने
संसारनो अने देहनो राग टळ्‌या वगर रहे नहि; परभावनी जराय प्रीति तेने रहे नहि.