Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : अषाढ : २४९२
अहीं तो कहे छे के चैतन्यस्वरूपमां जेनी द्रष्टि निस्पंद थई छे–स्थिर थई छे एवा
ज्ञानीने सस्पंद एवुं आ जगत पण निस्पंद समान भासे छे; जगतनी क्रियाओ
साथेनो पोतानो संबंध छूटी गयो त्यां तेने पोताना अनुभवथी भिन्न देखे छे. मारी
चेतनानो एक अंश पण परमां देखातो नथी, मारुं सर्वस्व मारामां ज छे–एम ज्ञानी
पोताना आत्माने जगतथी असंग अनुभवे छे.
भाई, तारे तारा आत्माने अनुभववो होय तो तुं जगतने ताराथी अत्यंत
भिन्न, अचेतन जेवुं देख. एटले के तारी चेतनानो के तारा सुखनो एक अंश पण तेमां
नथी एम जाण. जगतमां तो बीजा अनंता जीवो छे, सिद्धभगवंतो छे, अर्हन्तो छे,
मुनिवरो छे, धर्मात्माओ छे; अनंता जीव ने अजीव पदार्थो छे, ने ते सौनी क्रिया
तेमनामां थया करे छे, पण आ आत्मा पोताना स्वानुभव तरफ ज्यां उपयोगने झुकावे
छे त्यां आखुं जगत शून्यवत भासे छे; जगत तो जगतमां छे ज पण आनो उपयोग
ते पर तरफथी पाछो हटी गयो छे तेथी ते उपयोगमां पोताना आत्मानुं ज अस्तित्व छे
ने जगत तेमां शून्य छे. उपयोगने अंतर्मुख करीने आ रीते आत्माने परथी शून्य
अनुभवे ते ज आत्माना परम सुखने भोगवे छे, बीजा जीवो आत्माना सुखने
भोगवी शकता नथी. आत्माना अतीन्द्रियसुखना अभिलाषी जीवे जगतनी क्रियाथी
पार पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने जाणवुं जोईए.ाा ६७ाा
(वीर सं. २४८२ असाड वद छठ्ठ: समाधिशतक गा. ६८)
देहादिथी भिन्न आत्माने बहिरात्मा जाणतो नथी.–तेथी ते संसारमां रखडे छे.
ए वात कहे छे–
शरीरकंचुकेनात्मा संवृत्तज्ञानविग्रहः।
नात्मानं बुध्यते तस्माद्भ्रमत्यतिचिरं भवे।।६८।।
आत्मा तो चैतन्यशरीरी अतीन्द्रिय छे, तेमां अंतर्मुख थईने तेने जे ध्येय नथी
बनावतो ते आत्माने नथी जाणतो, पण देहादिने के रागादिने ज आत्मा माने छे. तेनुं
ज्ञानशरीर कर्मरूपी कांचळीथी ढंकाई गयुं छे, अर्थात् आत्मा तरफ न वळतां कर्म तरफ
ज तेनुं वलण छे, ने तेथी ते संसारमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. जेम कांचळी ते सर्प
नथी, तेम आ चैतन्यस्वरूप आत्माने कर्म तरफना वलणथी जे राग–द्वेष–मोहरूप
कांचळी छे ते तेनुं वास्तविकस्वरूप नथी. ते कांचळीने लीधे अज्ञानीने आत्मानुं
वास्तविकस्वरूप ओळखातुं नथी. एटले रागादिने ज आत्मा मानीने ते पोते पोताना
चैतन्यस्वरूपने आवरणथी ढांकीने चारगतिमां रखडे छे. तेने भगवाने उपदेश कर्यो छे
के हे जीव! तारुं चैतन्यतत्त्व रागादिथी रहित छे, देहादिथी भिन्न छे, तेमां तुं अंतर्मुख
था. तारी भूलथी भवभ्रमण छे, ते भूल टाळ, ने