Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९२ आत्मधर्म : १९ :
चिदानंद स्वरूप आत्मानी संभाळ कर तो तारुं भ्रमण टळे ने मुक्ति थाय.
जेम पाणीमां नीमक (मीठुं) मिश्र थतां ते खारुं लागे छे, त्यां खरेखर पाणीनो
खारो स्वभाव नथी, खारुं तो मीठुं छे; तेम आत्मामां कर्म तरफना वलणथी राग–द्वेष–
मोहरूप आकुळतानुं वेदन थाय छे, ते आकुळता खरेखर आत्माना चैतन्यस्वभावनो
स्वाद नथी, ते तो कर्म तरफना वलणवाळा विकारीभावनो स्वाद छे. हुं तो चैतन्यस्वरूप
छुं–ज्ञान ने आनंद ज मारुं शरीर छे–एवी अंर्त स्वरूपनी सावधानी करतां चैतन्यना
स्वादनो अनुभव थाय छे. पण अज्ञानीजीव भ्रांतिने लीधे तेने जाणतो नथी ने कर्म
तरफना वलणना रागादिरूप स्वादने ज ते आत्मानो स्वाद माने छे. राग ते धर्म नथी–
एम कदाच धारणाथी कहे, पण अंतरमां ते रागना वेदनथी जुदो पडतो नथी, सूक्ष्मपणे
रागनी मीठासमां ज ते अटकी गयो छे, पण रागथी पार थईने ज्ञानभावनो अनुभव
करतो नथी. ज्यांसुधी रागथी पार ज्ञानानंदस्वरूपने न जाणे त्यांसुधी ते अज्ञानी
बहिरात्मा संसारमां ज परिभ्रमण करे छेाा ६८ाा
बहिरात्मा यथार्थ आत्मस्वरूपने नथी जाणतो, तो ते कोने आत्मा माने छे?–ते
हवे कहेशे.
सन्तोनी वात
सन्तो कहे छे: भाई! तारे अत्यारे आत्मानो आनंद
कमावानो अवसर आव्यो छे तेने तुं चुकीश नहि.
आचार्यदेव कहे छे के स्वानुभवथी हुं जे शुद्धात्मा देखाडुं
छुं तेमां संदेह कर्या वगर तारा स्वानुभवथी तुं प्रमाण करजे!
अनाकुळ स्वरूपनुं ध्यान अनाकूळ परिणति वडे ज
थाय छे; ते ध्यानमां ज आनंद स्फूरे छे.
विकल्प तो आकुळता छे, आकुळतामां आनंदनी
स्फुरणा केम थाय?
आत्मा जडतो नथी–एम कोई कहे, तो तेने कहे छे के
भाई! ज्यां आत्मा छे त्यां तुं गोततो ज नथी पछी क््यांथी
जडे? अंतर्मुख थईने ज्ञानभावमां शोध तो जरूर आत्मा
जडशे. परभावमां शोध्ये ते नहि मळे.