के: हे जीव! चारगतिना भवभ्रमणमां, के मोक्षनी आराधनामां तुं
एकलो ज छो, बीजुं कोई तारुं साथीदार नथी; आवुं एकत्वस्वरूप
जाणीने तुं एकलो तारा परमतत्त्वमां ज स्थित रहे.
जीव एकनुं नीपजे मरण, जीव एकलो सिद्धि लहे.
प्रत्येक समये ओछी थाय छे एटले के आयुष्यनी हानिरूप मरण दरेक समये थई रह्युं
छे, आयुष्यना रजकण क्षणेक्षणे दोडता जाय छे तेने ईन्द्रो पण रोकी शकता नथी. ईन्द्रोनुं
आयुष्य पण प्रत्येक समये क्षय पामतुं ज जाय छे. आयुष पूरुं थतां एक भवमांथी
मरीने बीजा भवमां जतां जीवने शुं कोई रोकी शके छे? ना; असहायपणे संसारमां ते
जन्म–मरण करे छे. ने स्वभावनी साधनावडे ते मोक्षने साधवा मांगे तो ते पण परनी
सहाय वगर पोते एकलो ज साधी शके छे. संसारमां रखडवामां के सिद्धिने साधवामां
जीव एकलो ज छे.
पाम्यो! रात्रे क््यारे मरण पाम्यो तेनी पण लोकोने खबर न पडी. अने कदाच हजारो
लाखो सेवको ने मोटा मोटा वैद–दाक्तरो सामे उभा होय तोपण जीवने मरणथी
बचाववा कोई समर्थ नथी. माटे आवुं असहायपणुं जाणीने हे जीव! तुं तारा एकत्व
स्वभावने परथी पृथक् देख. बापु! तारा चिदानंदघरने तुं जो तो खरो....तेना अपार
वैभवने देखतां तुं एकलो सिद्धिने पामीश; तेमां कोई बीजानी सहायनी जरूर तने नहि
पडे. भगवान! असह्य अने क्षणभंगुर एवा आ संसारना भावथी विरक्त थईने
एकलो तुं तारा सिद्धपदने साध.