Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९२ आत्मधर्म : २७ :
छे एम जाणीने हे जीव! तुं पर परिणामथी पाछो वळीने निजस्वभावमां तारा
परिणामने जोड.....जेथी तुं एकलो पोतामां तारा परम आनंदने भोगवीश.
पोते करेला कर्मना फळानुबंधने स्वयं भोगववा माटे तुं एकलो जन्ममां तेमज
मृत्युमां प्रवेशे छे, कोई (स्त्री–पुत्र–मित्रादिक) सुख–दुःखना प्रकारोमां बिलकुल
सहायभूत थतुं नथी; ए तो मात्र पोतानी आजीविका माटे धूताराओनी टोळी तने
मळी छे. एटले के परनी सहाय लेवा जईश तो तुं धुताई जईश, तारी चैतन्यनी संपदा
लुंटाई जशे. माटे एनी नजर छोड.....ने तारा स्वरूपमां नजर कर......
जेनी हाकल पडतां हजार देवो हाजर थाय–एवा मोटा त्रण खंडना धणीने
पीवानां पाणी न मळ्‌यां! अने सगाभाईना हाथे बाणथी मरण थयुं! अरे, संसारमां
कोण शरण छे? हजार देवो कदाच पासे उभा होय तोपण ते कांई शरण नथी, त्रण
खंडना धणी द्वारिकानगरीने बळती बचावी न शक्या माता–पिताने नगरीथी बहार
काढी न शक््या! माटे शुं करवुं! के आवा अशरण संसार तरफनुं वलण फेरवीने तुं तारा
चिदानंद तत्त्वनी आराधनामां तारुं चित्त जोड. मोहने लीधे तुं तारा स्वसुखथी विमुख
थयो हतो, हवे स्वभावनी सन्मुख थईने तुं तारा सुखने भोगव. आत्मानी
एकत्वभावनामां ज आवुं सुख छे.
आत्मानी आवी एकत्वभावनामां परिणमेला सम्यग्ज्ञानी केवा होय? ते
पोताना आत्माने केवो अनुभवे? तो कहे छे के–
मारो सुशाश्वत एक दर्शनज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे. (१०२)
संसारना विकल्पोना कोलाहलथी रहित एवी मारी सहज शुद्ध ज्ञानचेतना तेने
अतीन्द्रिय आनंदसहित हुं भोगवुं छुं. ने मारा अनुभवमां आवतो जे मारो शाश्वत
ज्ञानदर्शनमय एक स्वभाव, ते सिवाय बीजा बधाय परभावो माराथी बहार छे,
आवा निजस्वरूपने ज्ञानी एकत्वभावनावडे अनुभवे छे.
एक भाणामां साथे बेसीने जमनारा त्रण जणा, तेमां एक ते भवे मोक्ष जनार होय,
एक स्वर्गे जाय ने एक नरके जाय;–आ रीते पोताना परिणामथी जीव एकलो ज स्वर्गमां–
नरकमां के मोक्षमां जाय छे. अरे, तारुं एकत्व चैतन्यतत्त्व–जेमां विकल्पोनो कोलाहल नथी,
जेमां बीजानो संयोग नथी,–एवा परमतत्त्वने स्वानुभवमां प्राप्त कर्या वगर भवभ्रमणनो
छेडो आवे तेम नथी. माटे एकलो असंग थईने अंतरनी गूफामां परमतत्त्वने शोध ने तेमां
स्थिर था. जेथी तने एकलाने तारुं मोक्षसुख तारामां ज अनुभवाशे.