छे एम जाणीने हे जीव! तुं पर परिणामथी पाछो वळीने निजस्वभावमां तारा
परिणामने जोड.....जेथी तुं एकलो पोतामां तारा परम आनंदने भोगवीश.
सहायभूत थतुं नथी; ए तो मात्र पोतानी आजीविका माटे धूताराओनी टोळी तने
मळी छे. एटले के परनी सहाय लेवा जईश तो तुं धुताई जईश, तारी चैतन्यनी संपदा
लुंटाई जशे. माटे एनी नजर छोड.....ने तारा स्वरूपमां नजर कर......
कोण शरण छे? हजार देवो कदाच पासे उभा होय तोपण ते कांई शरण नथी, त्रण
खंडना धणी द्वारिकानगरीने बळती बचावी न शक्या माता–पिताने नगरीथी बहार
काढी न शक््या! माटे शुं करवुं! के आवा अशरण संसार तरफनुं वलण फेरवीने तुं तारा
चिदानंद तत्त्वनी आराधनामां तारुं चित्त जोड. मोहने लीधे तुं तारा स्वसुखथी विमुख
थयो हतो, हवे स्वभावनी सन्मुख थईने तुं तारा सुखने भोगव. आत्मानी
एकत्वभावनामां ज आवुं सुख छे.
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे. (१०२)
ज्ञानदर्शनमय एक स्वभाव, ते सिवाय बीजा बधाय परभावो माराथी बहार छे,
नरकमां के मोक्षमां जाय छे. अरे, तारुं एकत्व चैतन्यतत्त्व–जेमां विकल्पोनो कोलाहल नथी,
जेमां बीजानो संयोग नथी,–एवा परमतत्त्वने स्वानुभवमां प्राप्त कर्या वगर भवभ्रमणनो
छेडो आवे तेम नथी. माटे एकलो असंग थईने अंतरनी गूफामां परमतत्त्वने शोध ने तेमां