Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९२ आत्मधर्म : ३७ :
विभावनो प्रयत्न करे अने एम माने के हुं आत्मानी प्राप्तिनो घणो प्रयत्न करुं छुं–ए
तो केवडी मोटी भूल कहेवाय? आवी भूलथी बचवा माटे ज आत्मज्ञसंतजनोनी
साक्षात् उपासनानुं खास महत्व छे. ज्ञानीनी छायामां आत्मप्राप्तिनो उपाय
सरलताथी समजाय छे.
भगवान बन्या पछी सुख दुःख कांई होतुं नथी–तो लाभ शो (772)
भाईश्री, भगवान बन्या पछी दुःख नथी होतुं ए वात साची, परंतु त्यां
आत्मिक सुख तो भरपूर होय छे. पोताना आत्मामांथी ज सुख उत्पन्न थईने आत्मा
ते सुखने भोगवे छे, ने ते सुख एवुं मजानुं छे के सदाकाळ तेनो भोगवटो (अनुभव)
करवा छतां कदी कंटाळो आवतो नथी. –जेमां कोई बीजानी जरूर न पडे एवुं स्वाधीन
आत्मसुख अनुभवाय–एना जेवो लाभ आ जगतमां बीजो कोई नथी. भगवानने
सुखदुःखनो अभाव कह्यो होय त्यां ईन्द्रियजन्य पराधीन सुखनो अभाव समजवो,
स्वाधीन आत्मसुखनो नहि.
मात्र जाणवुं–जोवुं, (करवुं कांई नहि) तेमां तो जडता जेवुं न जई जाय? (772)
अरे भाई! जाणवुं–जोवुं ए ज चेतननो स्वभाव छे; मात्र जाणवुं–ते कांई
जडता नथी पण तेमां ज खरी जागृती छे; एमां तो महान आनंद, वीतरागता वगेरे
भावो भर्या छे.
दाहोदना सभ्य नं. ४०७ लखे छे के–“बालविभागमां जोडाया बाद ज्यारे
दर्शनकथा चोपडी मळी त्यारथी मने धर्म प्रत्ये प्रेम वध्यो छे. बालमित्रो वधे ने
बालविभाग हजी खीले एवी आशा साथे, बधा बालमित्रोने तेमना जन्म दिवसे
मारावती अभिनन्दन आपशो.”
रोमेश जैन (218) अमदावाद; आत्मधर्म अंक २७२ मां ‘वीरप्रभुना वंशज’
तथा तेमनी २९ थी ३२ पेढी विषे वांचीने आपने आनंद थयो, ने १ थी ३२ पेढी विषे
जाणवानी ईन्तेजारी थई; तो षट्खंडागम पुस्तक १ नी प्रस्तावना वांचवाथी आपने ते
संबंधी घणी माहिती मळशे.
महापुरुषोना जीवनप्रसंगो वगेरे संबंधी साहित्य गुजराती भाषामां घणुं ओछुं
छे. तमारी जेम हजारो बाळको ए साहित्य माटे झंखी रह्या छे. आत्मधर्ममां बधी
वस्तुओ आपवानुं शक््य नथी, केमके चालु लेखोनो मांडमांड समावेश थाय छे. आम
छतां जिज्ञासुओ तरफथी उत्साहभर्या सहकारने लीधे आत्मधर्मनुं कद धीमेधीमे वधारी
रह्या छीए. अने जेम जेम कद वधतुं जशे तेम नवुं नवुं साहित्य विशेष प्रमाणमां
आपी शकशुं. ऋषभदेव प्रभुनुं चरित्र आपने खुब गम्युं ने ए रीते चोवीसे
भगवंतोना चरित्र आपवा माटे लख्युं, तो क्रमेक्रमे जरूर आपीशुं.