प्रेरक आ प्रवचन वारंवार मननीय छे के जेथी आत्माने
चैतन्यरुचिना रंग लागे ने रागादिना बीजा कोई रंग लागे नहि.
लोकसंसर्गथी दूर अने लोकसंबंधी अभिलाषाथी दूर पोताना आनंदस्वरूपने चिन्तवे
छे. आनंदस्वरूप आत्मा हुं छुं–एम द्रढ प्रतीति वडे आत्माने स्वविषयरूप बनावे;
श्रद्धाने–ज्ञानने आत्मा तरफ झुकावे. मारी चीज परमां नथी, परनो अंश मारामां नथी;
विकल्प पण मारुं कार्य नथी हुं तो ज्ञान ने आनंदनो पिंड छुं–आवा स्वभावनी
भावनामां तत्पर ज्ञानी–सन्तो बहारना कार्योने पोताना हृदयमां लांबो काळ रहेवा
देता नथी; स्वभावना रस आडे बीजा बधा कार्योनो रस एने उडी गयो छे एटले तेमां
परिणामनुं जोर नथी. परिणामनुं जोर स्वभाव तरफ झूके छे. पोताना शुद्ध आत्मा
सिवाय बीजुं कांई धर्मीनी रुचिमां वस्युं नथी. एने आत्मा सिवाय बीजा कार्योनो रंग
ऊडी गयो छे, तेनो रस तेने रह्यो नथी.
स्वादनी प्रीति आडे जगतना स्वाद बधा नीरस लागे छे. लगनी पोताना आत्मानी
लागी छे त्यां बीजा शेमांय परिणामनी लीनता थती नथी. –आवी परिणति धर्मीने
सदाय क्षणे ने पळे वर्त्या ज करे छे. वनमां हो के घरमां, पण धर्मीनी परिणतिनो रंग
आत्मामां लागेलो छे, एनी परिणति भोजनादिमां जवा छतां तेने भोजनादिनो रंग
नथी, एटले खरेखर तेमां तेनी परिणति लागेली नथी. ते वखते चैतन्यस्वभावना
रंगथी ज तेनी परिणति रंगायेली छे, रागना रंगे ते रंगायेली नथी.