Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९२ आत्मधर्म : ४७ :
धर्मीने पोताना शुद्ध आत्मानुं ध्यान ते एक ज ईष्ट छे, ए सिवाय बीजामां
अंशमात्र परिणति जाय ते ईष्ट नथी, वहालुं नथी, सुखकर नथी. सुखनो समुद्र ज्यां
भर्यो छे तेमां उपयोगने स्थिर करवो ते ज मोक्षनो ने सुखनो मार्ग छे. साधकपणामां
वच्चे बीजा विकल्पो होय तेने धर्मी ईष्ट नथी मानता, तेने मोक्षनो उपाय नथी मानता.
जेमां आनंदनुं वेदन थाय ते ज ईष्ट छे, आनंदनुं जेमां वेदन न थाय ते आकुळतानुं
वेदन–थाय–ते धर्मीने ईष्ट केम होय? परमार्थ ध्यान–स्वाध्याय–आवश्यकक्रिया–
प्रतिक्रमणादि–मंगल–शरण वगेरे बधा शुद्धनयथी आत्मध्यानमां ज समाय छे.
अहो, जेनी सन्मुख जोतां मोक्षना साधननी उत्पत्ति थाय, ने जेनी विमुख जोतां
बंधना कारणनी उत्पत्ति थाय–एवुं आ चैतन्य तत्त्व ते ज धर्मीनुं ध्येय छे, तेनुं ध्यान
ए ज सर्व शास्त्रनो सार छे. आमां निश्चय–व्यवहार ने उपादान–निमित्त वगेरे बधाना
खुलासा समाई गया. शुद्धात्मानी सन्मुखता वडे मोक्षमार्गनी प्राप्तिनो अबाधित
नियम छे, एटले शुद्धात्मानी सन्मुख थवानो उपदेश ते ज ईष्ट–उपदेश छे. जेणे
अंतर्मुख थईने शुद्धात्मानुं ग्रहण कर्युं तेणे संतोना उपदेशमांथी ईष्टनुं ग्रहण कर्युं.
भाई, उपदेशमांथी तुं तारा शुद्ध आत्माने शोधजे ने तेने ज ईष्टपणे–वहालो
करीने ग्रहण करजे. बीजा कोई भावोने न गणीश. मारुं हित शेमां छे–ते नक्की करीने
अंतरमां शुद्धात्माना ध्यान वडे तेवो हितभाव (–सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र) प्रगट
करजे, ने परभावोनो प्रेम छोडजे. तारे तारो आनंद प्राप्त करवो छे ने? तो ते आनंद
ज्यां भर्यो छे त्यां जा.....जे आनंदनुं धाम छे तेने तुं ध्यानमां ले. –एना सिवाय आखा
जगतनी रुचिना रंगने छोड. धर्मीने रुचिमां आत्माना रंग लाग्या छे; ते रंग चडयो
तेमां हवे भंग पडे नहि एटले बीजा रागना रंग लागे नहि. आवो चैतन्यनो रंग
लागे ते ज आत्मानुं ईष्ट छे, ने ते ज ‘ईष्ट उपदेश’ नो सार छे. आवा आत्मानो रंग
लगाडीने तेनुं ध्यान करतां परम आनंदरूप मोक्षलक्ष्मी तारा हाथमां आवी जशे.
हुं कोण छुं? क््यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारूं खरूं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरूं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो कर्या,
तो सर्व आत्मिकज्ञाननां सिद्धांत तत्त्वो अनुभव्या.