Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : अषाढ : २४९२
भिन्न करीने अंतरना सिद्धस्वरूप साथे अभेद करुं छुं. ते अभेदपरिणतिमां अनंता
सिद्धो समाय छे.
वाह! जुओ, आ सिद्धपदना मांगळिकनो अपूर्व भाव! बधुं भूलीने सिद्धने
याद करीए छीए.....सिद्धपद ज अमारा ज्ञानमां तरवरे छे....ए ज आदरणीय छे ने
जगतमां रागादि बीजुं कांई मारे आदरणीय नथी. आम रुचिने मारा शुद्धआत्मा तरफ
वाळीने हे सिद्धभगवंतो! हुं मारा आत्मामां आपने स्थापुं छुं. मारा आत्माना असंख्य
प्रदेशमां हुं श्रद्धा–ज्ञानना बंगला बांधुं छुं तेमां आवीने हे सिद्ध प्रभु! आप वसो!
मारा ज्ञानमां रागने हुं नथी वसावतो हुं तो सिद्ध जेवा शुद्धस्वरूपने ज मारा ज्ञानमां
वसावुं छुं; सिद्धसमान स्वशक्तिनो भरोसो करीने हुं सिद्धोनो आदर करुं छुं. आवो
भाव प्रगट करवो ते अपूर्व वास्तु ने अपूर्व मांगलिक छे.
सिध्ध समान सदा पद मेरो एवा आत्मस्वरूपने सम्यग्ज्ञान–कळा वडे जाणतां
वेगपूर्वक शिवमार्ग सधाय छे, ने शरमजनक एवा जन्ममरण छूटी जाय छे. त्रण
लोकनो नाथ आ चैतन्यपरमेश्वर तेने आ चामडाना कोथळामां (शरीरमां) पूरावुं ते
शरम छे. अशरीरी थवा अशरीरी सिद्धोने नमस्कार करीए छीए, ने जे
शुद्धआत्मध्यानवडे तेओ सिद्ध थया तेवा शुद्धआत्मानो आदर करीने तेमने ध्यावीए
छीए. एम प्रथम गाथामां सिद्धोने वंदनरूप मंगळ कर्युं.
बीजी गाथामां अरिहंतोने वंदनरूप मंगळ करे छे–
घाइ चउक्कह किउ विलउ अणंत चउक्क पदिठ्ठु।
तहिंं जिणइंदहं पय णविवि अक्खमि कव्वु सुइठ्ठु।।२।।
चार घातिया क्षय करी, लह्यां अनंत चतुष्ट,
ते जिनवर चरणे नमी, कहुं काव्य सुईष्ट.
पोताना शुद्धआत्मामां उपयोगने जोडीने, ते शुद्धोपयोगना बळे जेमणे चार
घाती कर्मोनो क्षय कर्यो ने केवळज्ञानादि चतुष्टय प्रगट कर्या एवा अरिहंत परमात्माना
चरणोमां वंदीने आ ईष्ट–काव्य (योगसार–दोहा) रचुं छुं.
केवळज्ञानादि सहित अरिहंत परमात्मा अत्यारे विदेहक्षेत्रमां साक्षात् बिराजे
छे. सीमंधरादि २० तीर्थंकरो तथा बीजा लाखो केवळी भगवंतो–ते बधा अरिहंत
भगवंतोने पोताना ज्ञानमां जेणे स्वीकार्या तेने सम्यग्दर्शन थया विना रहे नहि
कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के–