भिन्न करीने अंतरना सिद्धस्वरूप साथे अभेद करुं छुं. ते अभेदपरिणतिमां अनंता
सिद्धो समाय छे.
जगतमां रागादि बीजुं कांई मारे आदरणीय नथी. आम रुचिने मारा शुद्धआत्मा तरफ
वाळीने हे सिद्धभगवंतो! हुं मारा आत्मामां आपने स्थापुं छुं. मारा आत्माना असंख्य
प्रदेशमां हुं श्रद्धा–ज्ञानना बंगला बांधुं छुं तेमां आवीने हे सिद्ध प्रभु! आप वसो!
वसावुं छुं; सिद्धसमान स्वशक्तिनो भरोसो करीने हुं सिद्धोनो आदर करुं छुं. आवो
भाव प्रगट करवो ते अपूर्व वास्तु ने अपूर्व मांगलिक छे.
लोकनो नाथ आ चैतन्यपरमेश्वर तेने आ चामडाना कोथळामां (शरीरमां) पूरावुं ते
शरम छे. अशरीरी थवा अशरीरी सिद्धोने नमस्कार करीए छीए, ने जे
शुद्धआत्मध्यानवडे तेओ सिद्ध थया तेवा शुद्धआत्मानो आदर करीने तेमने ध्यावीए
छीए. एम प्रथम गाथामां सिद्धोने वंदनरूप मंगळ कर्युं.
तहिंं जिणइंदहं पय णविवि अक्खमि कव्वु सुइठ्ठु।।२।।
ते जिनवर चरणे नमी, कहुं काव्य सुईष्ट.
चरणोमां वंदीने आ ईष्ट–काव्य (योगसार–दोहा) रचुं छुं.
भगवंतोने पोताना ज्ञानमां जेणे स्वीकार्या तेने सम्यग्दर्शन थया विना रहे नहि
कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के–