Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४९२ आत्मधर्म : ५ :
जो जाणइ अरहंतं दव्वत्त गुणत्त पज्जयतेहि।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।।
कुंदकुंदस्वामीए तो अरिहंत परमात्माओने साक्षात् नजरे जोया हता;
समवसरणनी यात्रा करी हती
अहो, अरिहंत परमात्मा सर्वज्ञ थया छे, रागनो अंश पण एने रह्यो नथी,–हुं
पण आवा अरिहंतोनी जातनो छुं, मारो स्वभाव पण एना जेवो ज छे;–एम
स्वभावनी प्रतीत करतां साधकपणुं खीले छे. साधक कहे छे के हुं सिद्धप्रभुनो नातीलो
छुं. प्रभो! आपनी ने मारी जात एक सरखी छे. हुं पण आपना जेवा मारा स्वरूपनो
अनुभव करतो करतो थोडा ज काळमां आपनी पासे आववानो छुं.–जुओ आ
अरिहंतोने अने सिद्धोने वंदन करवानी रीत.
भगवान जेवी ज जातनो मारो स्वभाव स्वीकारीने हुं भगवानने नमस्कार करुं
छुं. ‘हुं’ केवो? के ज्ञानदर्शनस्वभावमय हुं छुं. भगवाननी जातथी पोतानी जातने जुदी
राखीने साचा नमस्कार थाय नहि. जेवा भगवान तेवो हुं–एवी प्रतीतपूर्वक स्वसन्मुख
परिणति प्रगटे ते परमार्थ नमस्कार छे. आवा नमस्कारवडे साधक पोतानी पर्यायमां
अर्हंतपद अने सिद्धपदनो लाभ मेळवे छे. आनुं नाम ‘लाभ सवाया!’ आत्मा
केवळज्ञान अने सिद्धपदने पामे एना जेवो महान लाभ बीजो क््यो?
आ रीते सिद्धने अने अरिहंतने नमस्काररूप मंगळ करीने हवे कहे छे के आ
भवभ्रमणथी जे भयभीत थईने आत्मानी मुक्तिने चाहे छे एवा जीवोने माटे आ
शास्त्र रचाय छे:–
संसारहं भयभीयहँ मोक्खहँ लालसियाहं।
अप्पा संबोहणकयइ कय दोहा एक्कमणाहँ।।३।।
ईच्छे छे निज मुक्तता, भवभयथी डरी चित्त,
ते भवि जीव संबोधवा दोहा रच्या एकचित्त. (३)
जेना चित्तमां भवदुःखनो भय होय ने मोक्षसुखनी अभिलाषा होय एवा
आत्माने संबोधवा माटे एकाग्रचित्तथी आ दोहा रचाया छे. जुओ, मोक्षना अर्थी
जीवोने माटे आ उपदेश छे. जेने रागनी ने पुण्यनी ईच्छा होय, जेने स्वर्गना वैभवनी
तृष्णा होय ने तेमां सुख लागतुं होय ते जीवने शुद्धात्माना ध्याननो आ उपदेश रुचिकर
नहि लागे. पण जे जीवने आत्माना अनाकुळ सुखनी ज लगनी छे, रागनी–पुण्यनी–
संयोगनी रुचि नथी, चारे गतिना दुःखथी जे भयभीत छे, तडकामां पडेलुं माछलुं–जेम
पाणी माटे तरफडे तेम चार गतिना दुःखथी त्रासीने