Atmadharma magazine - Ank 273
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : अषाढ : २४९२
जे जीव चैतन्यनी परम शांतिने माटे तरफडे छे. तेना सिवाय बीजुं कांई जेने जोईतुं
नथी,–एवा मोक्षाभिलाषी भव्य जीवने माटे आ योगसारना १०८ दोहरा रचाय छे.
पोताना आत्माने संबोधवानी मुख्यता सहित भव्य जीवोने माटे आ दोहरा रचाय छे.
अरे, आ संसारमां चारे गतिमां क््यांय सुखनो छांटोये नथी, सुख तो अंतरना
स्वभावमां छे, ते स्वभावना अभिलाषीने संसारनी जेलमां क््यांय चेन न पडे, त्रास
लागे; जेम कोईने बे दिवस पछी फांसी देवानुं नक्की थयुं होय तो ते माणस भयभीत
वर्ते छे बधेथी तेनो रस ऊडी जाय छे; तेम आत्माना सुखना अभिलाषी मोक्षार्थी
जीवने चारे गतिना अवतार त्रासरूप लागे छे, जगत आखामांथी रस ऊडी गयो छे,
पुण्यनो रस ऊडी गयो छे ने एक आत्मसुखनी ज तालावेली लागी छे.–एवा जीवने
आत्मानुं स्वरूप समजाववा माटे आ उपदेश छे.
भावना
श्री हर्षदाबेन जैन (स. नं. २०२) पालनपुर तरफथी आवेल
काव्य उचित फेरफार सहित अहीं आप्युं छे. बाळकोना हृदयमां केवी
उच्च भावनाना संस्कारो रेडाय छे ते आ काव्यमां देखाय छे.)
मारे नथी प्रिय करवा सांसारिक कार्यो.....
मारे हवे प्रिय करवा छे शुद्ध भावो......
अनंत भवना अज्ञान मोहादि आवरणो हटाववा,
समकित–ज्ञान–चारित्रादि निजभावने पामवा......मारे
० (१)
जिन प्ररूपित परमार्थ मार्ग आराधवा,
रत्नत्रय सहित मुनिमार्गमां विचरवा......मारे
० (२)
अखंड उज्वल आत्मज्योति प्रगटाववा,
मुज जीवनमां आत्मधून जगाववा......मारे
० (३)
एक ध्याने निजात्मभावमां लीन रहेवा,
एक उपयोगे शुद्धभावमां लीन रहेवा......मारे
० (४)
सत्पुरुष शरणे सम्यक् रत्नत्रय पामवा,
तीर्थंकर समीप केवलज्ञान सहित विचरवा......मारे
० (प)