: १० : आत्मधर्म : प्र. श्रावण : २४९२
(२६६) ज्ञान, केवळीनुं ने साधकनुं जेम अन्य एवा रागद्वेषने जाणतां भगवान
केवळीनुं ज्ञान ते रागद्वेषमय थतुं नथी; तेम पोताथी अन्य एवा रागद्वेषने जाणतुं साधक
ज्ञानीनुं ज्ञान पण ते रागद्वेषमय थतुं नथी. एटले सम्यग्ज्ञान ते केवळज्ञाननी जातनुं ज छे;
केवळज्ञाननी जेम साधकनुं सम्यग्ज्ञान पण रागद्वेष वगरनुं ज छे. आवा ज्ञानने ओळखतां
ज्ञानीने ओळखी शकाय.
(२६७) आत्मानी शक्ति ने शब्दोनी शक्ति आत्मानी शक्ति स्व–परने जाणवानी
छे, परंतु स्व–परनी कथा कहेवानी ताकात आत्मामां नथी.
शब्दोमां स्व–परनी कथा कहेवानी ताकात छे, परंतु स्व–परने जाणवानी शक्ति नथी.
जे जाणनार छे ते बोलनार नथी.
जे बोलनार छे ते जाणनार नथी.
ज्ञान अने वाणी बंनेनां कार्य भिन्न भिन्न छे;
बंनेना कर्ता पण भिन्न भिन्न छे;
एक चेतन छे, बीजुं जड छे.
(२६८) अंश अने अंशीनी एक जात जेम ज्ञानस्वभाव सदा मुक्त छे तेम तेनो
व्यक्त ज्ञानांश पण मुक्त ज छे; जेम स्वभावमां राग एकमेक नथी तेम व्यक्तज्ञानांशमां पण
राग एकमेक नथी.
अंश ने अंशीनी एक जात छे.
ज्ञानांश छे ते स्वभाव साथे संबंध वगर कदी न होई शके.
ज्ञानांश छे ते विकार साथे संबंध वगरनो पण होय छे.
माटे हे जीव! जेना वगर तारो ज्ञानांश कदी नथी होतो एवा तारा स्वभावपणे तुं
तने देख. अने जेना वगर तारो ज्ञानांश होय छे एवा परभावोने तारा स्वरूपे न देख. तेनी
विद्यमानता वखते पण तारुं विद्यमानपणुं तेनाथी जुदुं ज छे.
(२६९) जेवो आनंद परमात्मानो, तेवो आनंद धर्मात्मानो जेम परमात्मानो
आनन्द परनी अपेक्षा वगरनो छे, तेम धर्मात्मानो आनन्द पण परनी अपेक्षा वगरनो छे.
बंनेना आनंदनी जात एक छे. बंनेनो आनंद आत्माना स्वभावमांथी प्रगटेलो छे.
(२७०) पोते पोताने ध्यावतां अहा, आनंदस्वभावी हुं, मारा जेवो सुखी कोण–के
जेने सुख माटे बहारना कोई साधननी जरूर न पडे? बहारना साधन वगर पोते पोताथी
ज पोतामां अतीन्द्रिय सुखने अनुभवुं–एवी मारी ताकात छे सुखनुं धाम हुं ज छुं. सुख माटे
बहार क््यांय मारे जोवापणुं नथी.–आवा निर्णयथी धर्मी जीव स्वसन्मुख थईने ईष्टने ध्यावे
छे. जेम वहाली माताने धावी धावीने बाळक पुष्ट थाय तेम धर्मीनो वहालो–ईष्ट जे आत्मा
तेने ध्यावी–ध्यावीने ते पोताना ज्ञानआनंदने पुष्ट करे छे. पोते पोताने ज ध्यावतां परम
आनंद अनुभवाय छे.