Atmadharma magazine - Ank 273a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : १प :
त्यार बाद, सुखपूर्वक बिराजता ते बंने मुनिवरो प्रत्ये विनयपूर्वक वज्रजंघे आ
प्रमाणे पूछयुं: हे भगवन्! आप क््यां वसनारा छो? आप क््यांथी अहीं पधार्या छो?
आपना आगमननुं कारण शुं छे? ते कृपा करीने कहो. हे प्रभो! आपने जोतां ज मारा
हृदयमां सौहार्दभाव उमटी रह्यो छे अने मारुं चित्त अतिशय प्रसन्न थई रह्युं छे, अने
मने एम लागे छे के जाणे आप मारा पूर्वपरिचित बंधु हो! प्रभो! आ बधानुं शुं
कारण छे ते अनुग्रह करीने मने कहो.
ए प्रमाणे वज्रजंघनो प्रश्न पूरो थतां ज मोटा मुनिराज तेने आ प्रमाणे उत्तर
देवा लाग्या: हे आर्य! तुं मने ए स्वयंबुद्धमंत्रीनो जीव जाण, के जेना वडे तुं
महाबलना भवमां पवित्र जैनधर्मनो प्रतिबोध पाम्यो हतो. ते भवमां तारा मरण
बाद में जिनदीक्षा धारण करी हती अने सन्यासपूर्वक शरीर छोडीने सौधर्मस्वर्गनो
देव थयो हतो; त्यारबाद आ पृथ्वीलोकमां विदेहक्षेत्रनी पुंडरीकिणी नगरीमां
प्रीतिकर नामनो राजपुत्र थयो छुं अने आ (बीजा मुनि) प्रीतिदेव मारा नानाभाई
छे. अमे बंने भाईओए स्वयंप्रभजिनेन्द्रनी समीप दीक्षा लईने पवित्र
तपोबळथी अवधिज्ञान तथा आकाशगामिनी चारणऋद्धि प्राप्त करी छे. हे आर्य! अमे
बंनेए अवधिज्ञानरूपी नेत्रथी जाण्युं के तमे अहीं भोगभूमिमां उत्पन्न थया छो;
पूर्व भवे आप अमारा परममित्र हता तेथी आपने प्रतिबोधवा माटे अमे अहीं
आव्या छीए.
श्री मुनिराज परम करुणाथी कहे छे–हे भव्य! तुं पवित्र सम्यग्दर्शन वगर केवळ
[अहा, मुनिराजना श्रीमुखेथी परम अनुग्रहभर्या आ वचनो सांभळतां
वज्रजंघनो आत्मा केवो प्रसन्न थयो हशे! ]