Atmadharma magazine - Ank 273a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 19 of 58

background image
: १६ : आत्मधर्म : प्र. श्रावण : २४९२
प्रीतिकर मुनिराज परम अनुग्रहपूर्वक वज्रजंघना आत्माने सम्यग्दर्शन
अंगीकार करावतां कहे छे के हे आर्य! तुं हमणां ज सम्यग्दर्शनने ग्रहण कर...
तारो सम्यकत्वना लाभनो काळ छे.
[तद्गृहाणाद्य सम्यक्त्वं तल्लाभे काल एष ते]
देशनालब्धि वगेरे बहिरंगकारण अने करणलब्धिरूप अंतरंगकारणवडे भव्यजीव
दर्शनविशुद्धि पामे छे. जेम सूर्यनो उदय थतां रात्रीसंबंधी अंधकार दूर थई जाय छे तेम
सम्यक्त्वरूपी सूर्यनो उदय थतां मिथ्यात्व–अंधकार नष्ट थई जाय छे. आ सम्यग्दर्शन
ज सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रनुं मूळ कारण छे, एना विना ते बंने होतां नथी.
सर्वज्ञे कहेलां जीवादि सात तत्त्वोनुं, त्रण मूढता रहित तथा आठअंग सहित यथार्थ
श्रद्धान करवुं ते सम्यग्दर्शन छे. निःशंकता, वात्सल्य वगेरे आठ अंगरूपी किरणोथी
सम्यग्दर्शनरूपी रत्न बहु ज शोभे छे. हे भव्य! तुं आ श्रेष्ठ जैनमार्गने जाणीने,
मार्गसंबंधी शंकाने छोड, भोगोनी आकांक्षा दूर कर, वस्तुधर्म प्रत्येनी ग्लानी छोडीने
अमूढद्रष्टि (–विवेकद्रष्टि) प्रगट कर; धर्मात्मासंबंधी दोषना स्थान छूपावीने
सत्यधर्मनी वृद्धि कर, मार्गथी विचलित थता आत्माने धर्ममां स्थिर कर, रत्नत्रयधर्ममां
अने रत्नत्रयधारक धर्मात्माओमां अतिशय प्रीतिरूप वात्सल्य कर अने तारी
शक्तिअनुसार जैनशासननी प्रभावना कर.–आ प्रमाणे निःशंकता आदि आठे अंगोथी
सुशोभित एवा विशुद्ध सम्यक्त्वने तुं धारण कर.
सम्यग्दर्शननुं स्वरूप अने तेनो परम महिमा समजावीने, ते सम्यग्दर्शन प्रगट
करवानी वारंवार प्रेरणा करतां श्री प्रीतिंकरमुनिराज कहे छे के: हे आर्य! जीवादि
पदार्थोना स्वरूपनुं यथार्थ श्रद्धान करनारा आ सम्यग्दर्शनने ज तुं धर्मनुं सर्वस्व समज.
आ सम्यग्दर्शन प्राप्त थतां, जगतमां एवुं कोई सुख नथी के जे जीवने प्राप्त न थाय,–
एटले के सर्वसुखनुं कारण सम्यग्दर्शन छे. आ संसारमां ते ज पुरुष श्रेष्ठ जन्म पाम्यो
छे...ते ज कृतार्थ छे...अने ते ज पंडित छे...के जेना हृदयमां निर्दोष सम्यग्दर्शन प्रकाशे छे.
हे भव्य! चोक्कसपणे तुं आ सम्यग्दर्शनने ज सिद्धिप्रसादनुं प्रथम सोपान जाण,
मोक्षमहेलनुं पहेलुं पगथियुं सम्यग्दर्शन ज छे, ते ज दुर्गतिना दरवाजाने रोकनार
मजबुत कमाड छे, ते ज धर्मना झाडनुं स्थिर मूळियुं छे, ते ज स्वर्ग अने मोक्षना घरनो
दरवाजो छे, अने ते ज शीलरूपी हारनी वचमां लागेलुं श्रेष्ठ रत्न छे. आ सम्यग्दर्शन
जीवने अलंकृत करनारुं छे, देदीप्यमान छे, सारभूत रत्न छे अर्थात् रत्नोमां श्रेष्ठ छे,
सौथी उत्कृष्ट छे, अने मुक्तिश्रीने वरवा माटेनी ते वरमाळ छे.–