Atmadharma magazine - Ank 273a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : १७ :
हे भव्य! आवा सम्यग्दर्शनने तुं तारा हृदयमां धारण कर...आजे ज
धारण कर...अमे तने सम्यक्त्व पमाडवा माटे ज आव्या छीए.








जे पुरुषे अत्यंत दुर्लभ आ सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्न प्राप्त करी लीधुं छे ते
अल्पकाळमां ज मोक्ष सुधीना सुखने पामी जाय छे. देखो, जे पुरुष एक मुहूर्तने माटे
पण सम्यग्दर्शन प्राप्त करी ल्ये छे ते आ मोटी संसाररूपी वेलने कापीने अत्यंत छोटी
करी नांखे छे. जेना हृदयमां सम्यग्दर्शन छे ते उत्तम देव तथा उत्तम मनुष्यपर्यायमां ज
उत्पन्न थाय छे, ए सिवाय नरक–तीर्यंचना दुर्जन्म तेने कदी थता नथी. अहो, आ
सम्यग्दर्शन संबंधमां अधिक शुं कहेवुं? एनी तो एटली ज प्रशंसा पर्याप्त छे के जीवने
सम्यग्दर्शन प्राप्त थतां अनंत संसारनो पण अंत आवी जाय छे. –आ प्रमाणे
सम्यग्दर्शननो परम महिमा समजावीने श्री मुनिराज कहे छे के हे आर्य! तुं मारा
वचनोथी जिनेश्वरदेवनी आज्ञाने प्रमाणभूत करीने अनन्यशरणरूप थईने (एटले के
तेनुं एकनुं ज शरण लईने) सम्यग्दर्शननो स्वीकार कर. जेम शरीरना हाथ–पग
वगेरे अंगोमां मस्तक प्रधान छे, अने मुखमां नेत्र मुख्य छे, तेम मोक्षना समस्त
अंगोमां गणधरादि आप्त पुरुष सम्यग्दर्शनने ज प्रधान अंग जाणे छे. हे आर्य!