Atmadharma magazine - Ank 273a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : २३ :
ते देह अत्यारे नथी, छतां ते देहमां रहेनारो हुं अत्यारे आ रह्यो; आम देहथी भिन्न
अस्तित्वनुं भान थई शके छे; जो देह ते ज आत्मा होय तो पूर्वना देहनो नाश थतां भेगो
आत्मानोय नाश थई गयो होत! पण आत्मा तो आ रह्यो–एम देहथी भिन्नपणुं प्रत्यक्ष
अनुभवगोचर थाय छे.
अरे, क््यां चैतन्यस्वरूप आनंदथी भरेलो आत्मा, ने क््यां आ जड–पुद्गलनुं
ढींगलुं? एमां एकत्वबुद्धि भाई, तने नथी शोभती. जेम मडदा साथे जीवतांनी सगाई न
होय तेम मृतक एवा आ शरीर साथे जीवंत चैतन्यमूर्ति जीवनी सगाई न होय, एकता न
होय; बंनेने अत्यंत भिन्नता छे. आ देह तो स्थूळ, ईन्द्रियगम्य, नाशवान वस्तु छे; तुं तो
अति सूक्ष्म, अतीन्द्रिय स्वरूप, ईन्द्रियोथी अगम्य अविनाशी छो. तुं आनंदनुं ने ज्ञाननुं
धाम छो. आवी तारी अंतरंग वस्तुमां नजर तो कर.
लाकडुं अने आ शरीर, ए बंने एक ज जातिना छे, जेम लाकडुं तुं नथी, तेम शरीर
पण तुं नथी. लाकडुं ने आत्मा जेम जुदा छे तेम देह ने आत्मा पण अत्यंत जुदा छे. आवी
भिन्नताना भान वगर जीवने समाधि, समाधान के शान्ति थाय नहि. समाधिनुं मूळ
भेदज्ञान छे. स्व परनुं भेदज्ञान करीने स्वमां स्थिर थतां समाधि थाय छे, ते समाधिमां
आनंद छे, शांति छे, वीतरागता छे, माटे हे जीव! तुं देहथी भिन्न आत्माने जाणीने तेने
ज भाव. [६९]
देहथी भिन्न आत्माने तुं तारा चित्तमां सदा धारण कर; देहना विशेषणोने आत्मामां
न जोड–एम हवे कहे छे–
गौरः स्थूलं कृशो वाऽहम् इत्यंगेनाविशेषयन ।
आत्मानं धारयेन्नित्यं केवलज्ञप्तिविग्रहम्
।।७०।।
भाई, आत्मा तो केवळज्ञानशरीरी छे; केवळ ज्ञान ज एनुं शरीर छे; आ जड शरीर
ते कांई आत्मानुं नथी. माटे हुं गोरो हुं काळो, के हुं जाडो हुं पातळो, अथवा हुं मनुष्य, हुं देव
एम शरीरनां विशेषणोने आत्मानां न मान. धोळो–काळो रंग, के जाडुं–पातळुं ए विशेषण
तो जड–शरीरनां छे; ते विशेषण वडे जड लक्षित थाय छे, ते विशेषणवडे कांई आत्मा लक्षित
थतो नथी; माटे धर्मी जीव ते विशेषणोथी पोताना आत्माने विशेषित नथी करतो, तेनाथी
जुदो ज, सदाय केवळज्ञान जेनुं शरीर छे एवा पोताना आत्माने सदाय धारण करे छे,
चिन्तवे छे,
अहा, असंख्यप्रदेशी अवयववाळुं केवळज्ञान ज जेनो देह छे, मात्र ज्ञान ज जेनुं
स्वरूप छे–एवा आत्मामां काळो–धोळो रंग केवो? के जाडुं–पातळुं शरीर केवुं? एने एकक्षण
पण तुं तारामां न चिंतव; ज्ञानानंदे भरपूर भगवान तुं छो, एवा स्वरूपे तुं तने सदा धार,
एटले के श्रद्धामां–ज्ञानमां–अनुभवमां ले.
ज्यां ज्यां ज्ञान त्यां त्यां हुं;
ज्यां ज्यां आनंद त्यां त्यां हुं;
पण ज्यां शरीर त्यां हुं–एम नहि,