Atmadharma magazine - Ank 273a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : प्र. श्रावण : २४९२
केवळज्ञप्ति स्वरूप हुं छुं एवा अनुभवमां विकार पण क््यां आव्यो? केवळ ज्ञप्ति
एटले एकलुं वीतरागी ज्ञान–एवा शुद्ध आत्मस्वरूपमां ज्यां विकारनोय अवकाश नथी
त्यां शरीर केवुं? आवा अशरीरी आत्मानुं चिन्तन अतीन्द्रिय ज्ञानवडे थाय छे.
ज्ञानना उपयोगने अंतरमां वाळीने धर्मी पोताने आवो (केवळज्ञानस्वरूप) अनुभवे
छे. “सर्व जीव छे सिद्ध सम” अने “सिद्धसमान सदा पद मेरो” एवी प्रतीतमां देह
साथे एकत्वबुद्धि रही शके नहीं, एटले देहसंबंधी विषयोमां सुखबुद्धि पण रहे ज नहि.
आवा भेदज्ञानवडे आत्माने ओळखवो ते मोक्षनुं कारण छे ए वात हवेनी
गाथामां कहेशे.
[७०]
ज्ञान अने रागनी भिन्नतावडे साधकता
ज्ञानने अने रागने एकमेक माने तेने
राग हेय ने ज्ञान उपादेय एवुं साधकपणुं रहेतुं नथी.
ज्ञानने अने रागने साध्य–साधनपणुं माने के कार्यकारणपणुं माने,
तो तेने, राग हेय ने ज्ञान उपादेय–एम रहेतुं नथी.
पर्यायमां रागांश ने ज्ञानांश ए बंनेने भिन्न जाणीने,
ज्ञानपर्यायने द्रव्य स्वभावमां लीन–एकमेक करीने
अनुभवता आनंदमय आखो आत्मा अनुभवाय छे.
ते अनुभूतिमां ज्ञान उपादेय थयुं ने राग हेय थयो,
एटले साधकपणुं थयुं.