: प्र. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : २प :
वीरनाथे िदव्यध्विनमां कहेलुं िवरल तत्त्व
एनी विरलता जाणीने तेने तुं साधी ले
आजे विपुलाचल उपर भगवान महावीरपरमात्मानी दिव्यध्वनिना धोध वहेवा
शरू थया. केवळज्ञान तो ६६ दिवस पहेलां थयुं हतुं, पण गौतमगणधर आजे
समवसरणमां आव्या ने आजे प्रभुनी वाणी छूटी. ते झीलीने गौतमस्वामीए
भावश्रुतपणे परिणमीने श्रुतनी रचना अंतर्मुहूर्तमां करी. आ रीते दिव्यध्वनिनो,
गणधरपदनो, श्रुतरचनानो ने वीरशासनना प्रवर्तननो दिवस आजे छे. युगने हिसाबे
बताव्युं, ते शुद्धात्मतत्त्वने जाणनारा विरला जीवो ज होय छे; ने ज्ञानी पासेथी
विनयपूर्वक तेनुं श्रवण करनारा पण विरल छे. आवुं तत्त्व कहेनारा तो दुर्लभ छे, ने
तेनी प्रीतिथी स्वभावनी वात सांभळनारा जीवो पण विरल छे, थोडा छे. अंतरना शुद्ध
परमात्मतत्त्वना आश्रये ज मोक्षमार्ग छे ने बहारना कोई भावथी मोक्षमार्ग नथी–
आवा स्वाश्रयनी वात सांभळीने तेनी रुचि करनारा जीवो बहु दुर्लभ छे. पुण्यनी–
रागनी–संयोगनी मीठासवाळा जीवो घणा छे, जगतमां तेनी वात कहेनारा पण घणा
छे ने ते सांभळनाराय घणा छे, एनी कांई विरलता नथी. विरलता तो
शुद्धचैतन्यतत्त्वनी छे; तेने जाणनारा थोडा, कहेनारा थोडा, सांभळनारा थोडा; ने तेने
ध्यावनारा तथा धारनारा पण थोडा छे. माटे आ शुद्धतत्त्व ज जगतमां महा दुर्लभ छे.
एनो अनुभव करीने धारणामां टकावी राखवुं ते विरल छे. ‘अहो, आनंदस्वरूप आ
आत्मानुं ध्यान करो’–एम दिव्यध्वनिमां भगवाने कह्युं.
रागनी ने तेना फळना भोगवटानी वात जीवोने सुलभ छे, अनुभवमां पण
तेने आवे छे, पण रागथी पार एकत्व–विभक्त आत्मानुं श्रवण–परिचय ने अनुभव
दुर्लभ छे. अनंतानंत जीवो तो संसारमां एकेन्द्रियादि असंज्ञीपणे ज रह्या छे, तेने तो
विचारवानी शक्ति पण नथी; तिर्यंच के नरकमां पण तेनुं श्रवण मळवानुं दुर्लभ छे.
स्वर्गमां देवो भोगोपभोगमां रत छे, तेमां तत्त्वनुं श्रवण करनारा विरला छे. ने
मनुष्यमां पण शुद्ध अध्यात्मतत्त्वनुं श्रवण करनारा विरला छे. व्यवहारनी वात
करनारा घणा छे पण अध्यात्मतत्त्वनी चर्चा करनारा, सांभळनारा ने तेनी प्रीति करीने
अनुभव करनारा जीवो बहु