Atmadharma magazine - Ank 273a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : प्र. श्रावण : २४९२
थोडा छे. माटे हे भाई! तत्त्वनी आवी विरलता जाणीने तुं अत्यंत उद्यमपूर्वक तेने
जाण, ने अनुभवमां ले. आ अनुभवनो अवसर आव्यो छे. अरे, आवो मोंघो अवसर
मळ्‌यो तेमां सूक्ष्मद्रष्टिथी तुं तारा आत्माने साध. बीजी रागनी कथा छोडीने, रागनो
प्रेम छोडीने, शुद्धचैतन्यनी कथा प्रेमथी सांभळ, तेनी प्रीति कर, ने तेने अनुभवमां ले.
रागथी जे लाभ थवानुं माने तेने रागथी भिन्न शुद्धतत्त्वनो प्रेम नहि जागे, ने
तेनी वात सांभळवी पण तेने नहि गोठे. शुद्धआत्मानी रुचि वगर बीजा जाणपणामां
घणा रोकाई रहे छे, भाई, तारा बहारना जाणपणा, के क्रियाकांड ते बधुं शुद्धात्मानी
रुचि–ज्ञान–अनुभव वगर निष्फळ छे. मने मारो शुद्ध आत्मा केम अनुभवमां आवे;
ए सिवाय बीजु कांई प्रयोजन मारे नथी–एम अंतरमां शुद्धात्मानी लगनी लगाडीने
तेनो निर्विकल्प अनुभव करनारा जीवो आ जगतमां बहु विरला–विरला छे. एवा
ज्ञानी धर्मात्माने धन्य कह्या छे. मोक्षनी सीधी सडके ते चाल्या जाय छे.
अरे जीव! आ भयानक संसारमां भमता आत्मज्ञानरूपी महा रत्न तें कदी
प्राप्त कर्युं नथी; विषयोना स्वादमां मोह्यो ने आत्माना आनंदना स्वादने भूल्यो. भाई,
ए विषयोना स्वादनो प्रेम छोडीने, अतीन्द्रिय आनंदथी भरेला आत्मानो प्रेम कर
अने तेना स्वानुभव वडे सम्यग्दर्शनरूपी महान रत्नने प्राप्त कर. सम्यग्दर्शन–रत्नने
प्राप्त करीने पण तेना उद्यममां जागृत रहे. पोताना अतीन्द्रियसुखनो साधक समकिती
गृहस्थावासमां पण कुटुंबादिथी अलिप्त जलकमळवत् रहे छे, अंदरनी चैतन्यपरिणति
रागथी अलिप्त छे. घरमां रह्या छतां कुटुंबादिमां के देहमां क््यांय रंचमात्र सुख भासतुं
नथी; पोताना अतीन्द्रिय चैतन्यसुखमां ज ते आसक्त छे. आवुं चैतन्यसुख, तेनी
वातनुं श्रवण–रुचि ने अनुभव करनार जीवो विरल छे. तुं ए कर्तव्य करीने विरलमां
भळी जा.
प्रौढ जैन शिक्षणवर्ग (भाईओ माटे)
सोनगढमां दर वर्षनी माफक प्रौढवयना भाईओ माटेनो जैन
शिक्षणवर्ग द्वितीय श्रावण सुद छठ्ठ ने रविवार ता. २१–८–६६ थी शरू थशे,
अने श्रावण वद नोम ने शुक्रवार ता. ९–९–६६ सुधी चालशे. वर्गमां आववा
ईच्छता जिज्ञासु भाईओए नीचेना सरनामे सूचना मोकली देवी–
श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)