: २८ : आत्मधर्म : प्र. श्रावण : २४९२
आ आत्मवीरनी सामे जोया वगर कर्मपणुं छोडी तमे तमारा जड–प्रदेशमां पुद्गलपणे
रहो, ने आ आत्मवीर स्वाधीन निजशक्तिने संभाळतो थको पोताना सिद्धपदरूप
साम्राज्यने भोगवशे.
आत्मवीरनी आ वात सांभळीने कर्मराज समजी गया के आ आत्मवीरनी
पासे मारी कांई बहादुरी नहि चाले; एटले ते समजी गया, ने जीव साथेनो विरोधभाव
(कर्मपणुं) छोडीने पोतानां पुद्गलप्रदेशमां समाई गया...ने आत्मवीर पोताना
सिद्धालयमां जईने बिराज्या. अत्यारे पण तेओ आनंदथी त्यां बिराजे छे ने
आपणनेय बोलावे छे के हे मारा जाती–बंधुओ! कर्मथी डर्या वगर तमे तमारा
स्वभावसामर्थ्यने संभाळीने मारी पासे चाल्या आवो.
श्री प्रोफेसर साहेबनो प्रश्न
अमारा सभ्य नं. १६ अमदावादथी पूछे छे:–
“सुख अंतरमां छे, ते बहार शोधवाथी नहि मळे; हवे अंतरमां
उतरवा माटे प्रयत्न करवा जतां अंतरमां रहेवातुं नथी अने मन बहार
आवतुं रहे छे; ज्यां सुधी अंतरमां रहेवाय नहि त्यां सुधी सुखनो अनुभव
थाय नहि; तो अंतरमां रहेवा माटे मारे शुं करवुं?–के जेथी ज्ञानीओए जेवो
अनुभव कर्यो छे तेवो अनुभव मने थाय? तेनो खुलासो कोई अनुभवी
ज्ञानी पुरुष पासेथी मेळवीने बालविभागमां आपशो.”
भाईश्री, अनुभवी ज्ञानीओ कहे छे के, जेने जे वस्तुनी खरेखरी
लगनी लागे तेना परिणाम ते वस्तुमां लाग्या वगर रहे नहि. बीजे तो
परिणाम सहेलाईथी लागे छे ने आत्मामां परिणाम लागता नथी तो आपणे
समजी लेवुं जोईए के आत्माना स्वभावनो जे उत्कृष्ट प्रेम–रस–महिमा
आववो जोईए ने जे लगनी लागवी जोईए तेमां अधूराश छे. छतां
जिज्ञासुए नीराशा सेव्या वगर, उल्लसित भावे, आत्मानी लगनी पुष्ट करी
करीने, तेमां उपयोग वाळवानो वारंवार द्रढ प्रयत्न चालु राखवो जोईए.
एना अंतिम फळरूपे, ज्ञानीओए जेवो अनुभव कर्यो छे तेवो अनुभव
आपणने पण जरूर थशे.