: प्र. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : ४३ :
उ
० – निजस्वरूपने जाणीने तेमां लीन थाय त्यारे.
प्र
० – शुं करवाथी धर्ममां लागणी वधे? (नं. ११३४)
उ
० – धर्मात्मानो संग करवाथी, तथा आत्महितनी जिज्ञासा वधारवाथी;
प्र
० – नवतत्त्वोमां हेय ज्ञेय, उपादेय केटला? (नं. ४४९ बी)
उ
० – नवे तत्त्वो ज्ञेय;
शुद्ध जीव उपादेय, तथा पर्याय अपेक्षाए संवर–निर्जरा ने मोक्ष उपादेय;
आस्रव–बंध–पुण्य–पाप ते चारे हेय;
कुमारपाळ जैन राजकोट (नं. ७प८) पूछे छे–
“एकरूप अभेद आत्मवस्तु निरपेक्ष छे, अने तेनी रुचि करवी ते पण परथी ने रागथी
निरपेक्ष छे” एम अंक २७३नी तत्त्वचर्चामां लखेल छे, तेनो अर्थ शुं थाय छे ते समजावशो.
उ
० – भाईश्री, जेम आत्मवस्तुनो एकरूप स्वभाव ते कोई बीजाने कारणे थयेलो के
टकेलो नथी, स्वत: पोताथी छे; तेम ते शुद्ध आत्मस्वभावनी रुचि–ज्ञान–अनुभव ते पण
कोई बीजाथी के रागथी थता नथी पण स्वत: पोताना आत्माना आश्रये ज थाय छे. आत्मा
सामे जोये ते थाय छे, पर सामे जोये थता नथी; आ रीते आत्मा सिवाय बीजानी अपेक्षा
तेमां न होवाथी ते निरपेक्ष छे. निरपेक्ष एटले आत्मसापेक्ष. (विशेष समजवा माटे तमारा
गामना मुमुक्षु मंडळना वांचनमां वडील साधर्मीओ पासेथी समजी लेशो.)
प्रकाश जे. जैन मोरबी (नं. १३९) पूछे छे–
(१) प्र
० – सूर्य अने चंद्र जैनधर्मनी द्रष्टिए शुं छे?
उ
० – आपणने जे देखाय छे ते एक जातनी पृथ्वी छे; तेनी अंदर ज्योतिषी देवोना
ईन्द्रो (सूर्य ने चंद्र) रहे छे. ते ईन्द्रो जिनेन्द्रदेवना भक्त छे. त्यां जिनमंदिर पण छे.
(२) प्र
० – पृथ्वी ए जैनधर्मनी द्रष्टिए शेमांथी उत्पन्न थई छे?
उ
० – पृथ्वी उत्पन्न थई नथी, अनादिनी छे; तेमां काळअनुसार अमुक फेरफार थया
करे छे.
(३) प्र
० – जिनेन्द्रभगवाननी मूर्ति नजरे पडे त्यारे आपणे शुं बोलवुं जोईए?
उ
० – जिनेन्द्रभगवानना गुणगान संबंधी कंई पण बोली शकाय. जिनेन्द्र
भगवानना दर्शननी अनेक स्तुतिओ आवे छे.
(४) प्र
० – जैनधर्मना बीजा कोई नामो छे?
उ
० – हा; जैनधर्मना बीजा एटला बधा गुणवाचक नामो छे के आपणा आत्मधर्मना
बधाय पानां भरी दईए तो पण पूरा न थाय. जेमके–जैनधर्म एटले वीतरागीधर्म,
रत्नत्रयधर्म, मोक्षनो मार्ग, शुद्ध उपयोग, आत्मानो धर्म, सर्वज्ञनो धर्म, अनेकान्त धर्म, अरि–