: ४४ : आत्मधर्म : प्र. श्रावण : २४९२
हंतोनो पंथ, मोह–क्षोभ वगरनो भाव, साम्यभाव, अतीन्द्रिय सुख, परम आनंद,
स्वानुभूति; वगेरे.
* शर्मिष्ठाबेन (नं. २३८) पूछे छे के– ‘भगवान क््यां रहे छे?’
सिद्धभगवंतो लोकाग्रे रहे छे; अरिहंत भगवान अत्यारे विदेहक्षेत्रमां वसे छे; ने
चैतन्यभगवान आपणा दरेकना आत्मामां रहे छे; ए भगवानने ओळखतां आपणे
भगवान थईशुं...ने उपर जईने सिद्धभगवंतोनी साथे आनंदथी रहीशुं.
* जेतपुरथी मुकेश जैन (स. नं. १८प) लखे छे–
‘जेम नानुं बाळक पोतानी मानी राह जुए, जेम खेडुत वरसादनी राह जुए, जेम
मारा जेवा बालमित्रो पोताना प्रश्नना जवाबनी राह जुए, तेम हुं आपणा आत्मधर्मनी
राह जोई रह्यो हतो. आखरे अषाड मासनो अंक हाथमां आव्यो ने तेमां मारा प्रश्ननो
जवाब वांचीने घणो ज आनंद थयो. आ विभागद्वारा आप बालमित्रो साथे गाढ दोस्ती
बांधी रह्या छो. अने रोकेटनी झडपे आत्मधर्मनो अत्यारे विकास थई रह्यो छे.’
दोस्त! आपणे कांई चंद्र सुधी नथी जवुं, आपणे तो ठेठ मोक्ष सुधी पहोंचवुं छे;
एटले आपणे तो रोकेट करता य घणी वधु झडपे ‘आत्म–धर्म’ नो विकास करवानो छे.
रोकेटवाळा चंद्र सुधी पहोंचे त्यार पहेलां आपणे मोक्षना अडधा रस्ते तो पहोंची जवानुं छे.
* अकलंककुमार (स. नं. १४४) नां प्रश्नो–
(१) पुद्गलद्रव्य आंखेथी देखाय?
एकलुं छूटुं पुद्गलद्रव्य (परमाणु) आंखेथी देखाय नहि, पण घणा पुद्गलद्रव्य
भेगा मळीने स्थूळ स्कंध थयो होय तो आंखेथी देखाय.
(२) एक माणसने आंखो नथी, तो ते देखे के नहि?
हा, तेने जे जे प्रकारनुं ज्ञान थाय ते ते प्रकारने लगतो दर्शनउपयोग थाय छे, ते
अपेक्षाए देखवुं कही शकाय. (देखवुं एटले आंखथी देखवुं–एवो अर्थ अहीं न समजवो.)
(३) जगतमां कयुं द्रव्य मोटुं?
जे बधा द्रव्योने जाणे ते. (अथवा क्षेत्र अपेक्षाए आकाश मोटुं, ने भावअपेक्षाए
आपणे मोटा.)
(४) नाना अने मोटामां आत्मा नाना–मोटा होय के केम?
–ना;
* सभ्य नं. २३९ (साबली) पूछे छे–
प्र. –मुक्त जीव क््यां रहे?
उ. –लोकमां सौथी ऊंचे.
प्र. –अमे खोराकथी जीवीए छीए?