: प्र. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : ३ :
स्वरूपने प्रतीतमां लईने तेने ज चिंतनमां ले. ‘हुं सर्वज्ञस्वभावथी भरपूर भगवान छुं’
एवा अनुभवना जोरे वीरना पंथे मोक्षमार्गने साधवा नीकळ्यो ते साधक अफरगामी छे.
ते पाछो नहि फरे; अप्रतिहतभावे ते मोक्षने साधशे.
हुं परमात्मा छुं एवा स्वभावनो जे नकार करे छे ने रागादि भावोरूपे ज
आत्माने अनुभवे छे–ते जीव स्वभावसत्तानो अनादर करीने नास्तिक थई जशे. अने
रागथी पार मारी चैतन्यसत्तामां परमात्मपणुं भरेलुं छे एवा स्वभावने अनुभवनार
ज्ञानी रागने तोडीने अतीन्द्रिय परमात्मा थशे, बीजा जीवो ईन्द्रियो वडे जेनुं अस्तित्व
जाणी न शके एवा सिद्धपदने ते पामशे.
विकल्पनी जातनो हुं नहि, हुं तो सिद्धपरमात्मानी जातनो छुं एम पोताना
आत्मने सिद्धस्वरूपे ध्यावतां साधकना अंतरमां परम आनंदरूपी दूधनी धारा छूटे छे.
शब्दोथी पार ने मनना विकल्पोथी पार अतीन्द्रियआनंदस्वरूप आत्मा ते स्वानुभवनो ज
विषय छे. अरे, परम अचिंत्य एनो महिमा, तुं अंतरमां नजर करीने, अंतरमां उपयोग
मुकीने एने जोवानो प्रयत्न कर. अंतरमां जेने जोतां तुं न्याल थई जईश एवुं तारुं
स्वरूप छे.
जिनेन्द्रदेव जेवा तारा स्वरूपने लक्षमां लईने क्षणे क्षणे तुं एने चिंतव; एने
चिन्तवतां आनंदनो उत्पाद थशे ने विकल्पोनो कोलाहल शमी जशे. विकल्पोना कोलाहल
वगरनुं आत्मस्वरूप छे, ते विकल्प वडे केम अनुभवाय? विकल्पोथी ते पार छे. आत्मानी
श्रद्धा–ज्ञान–आनंद ते बधाय अतीन्द्रिय छे, मनना विकल्पोथी पार छे. आवा स्वभावने
साधवा माटे जे जीव जाग्यो ते साधकनी रुचिना रणकार कोई जुदी ज जातना होय छे.
आ...त्म...ध...र्म
• आत्मार्थीताने पोषण मळे एवुं उच्च साहित्य वांचवानी आपने जिज्ञासा होय,
• सन्तोनां शान्तरसझरता वचनामृतनुं पान करवानी आपने भावना होय,
• आपनां बाळकोने ने परिवारने अध्यात्मना उच्च संस्कारोनुं सींचन करवा आप
चाहता हो, तो आपना घरमां “आत्मधर्म” मंगावो.
* आत्मधर्म ए भारतनुं सर्वश्रेष्ठ अध्यात्म–मासिक छे.
* अनेक चित्रोथी सुशोभित लगभग एकहजार पानानी श्रेष्ठ वांचनसामग्री दर वर्षे
आपे छे. वार्षिक लवाजम चार रूपिया (नमुनो फ्री)
प्राप्तिस्थान: जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)