Atmadharma magazine - Ank 273a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : प्र. श्रावण : २४९२
बीजो कोई मोक्षमार्ग जरा पण नथी; शुभरागमां मोक्षनुं कारणपणुं जरा पण नथी.
अरे, राग तो बाह्यभाव छे, तेना वडे अंदरना अनुभवमां केम जवाय? बहारनो भाव
अंदरना भावनुं कारण केम थाय? –जरा पण न थाय. आवी श्रद्धा तो पहेलां कर.
आवी साचा मोक्षमार्गनी श्रद्धा पण न करे ने रागने मोक्षमार्ग माने, राग जराक पण
मोक्षनुं कारण थशे एम माने, –तो ते जीव आत्मदर्शनने जाणतो नथी, भगवाने कहेला
साचा मोक्षमार्गने जाणतो नथी, के सन्त–गुरुओनां आदेशने मानतो नथी. सर्वज्ञो अने
सन्तोनो आदेश तो एम छे के हे जीव! स्वाश्रित सम्यग्दर्शनादिने ज तुं मोक्षनुं कारण
जाण, ने परसन्मुख कोई भावने मोक्षनुं कारण तुं जरा पण न मान.
अरे, अंतरमां पूर्ण आनंदनो भंडार तुं, –तेनी सन्मुख जोये तारो मोक्षमार्ग छे;
बीजानी सामे जोये तारो मोक्षमार्ग नथी. तारो मोक्ष तारा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र
परिणामथी ज छे, बीजा कोई वडे तारो मोक्ष नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते
स्वसन्मुखपरिणाम छे. स्वसन्मुखपरिणाम कोने थाय? के जेने स्वतत्त्वनो खरो महिमा
ने परम रस आवे तेने; स्ववस्तुनी किंमत चूकीने जे जीव पर वस्तुनी किंमत अधिक
करे छे तेना परिणाम परसन्मुख ज रहे छे; स्वनी उत्कृष्ट किंमत (महिमा) भासे तो
परिणाम स्वसन्मुख थाय, ने मोक्षमार्ग प्रगटे. आ रीते स्वसन्मुखता वडे मोक्षमार्गना
दरवाजा खुले छे.
* * *
गृहवासमां रहेला सम्यग्द्रष्टिने पण आत्मदर्शनथी मोक्षमार्गना दरवाजा खूली
गया छे; तेने शुद्ध स्वतत्त्वनुं उपादेयपणुं, ने समस्त परभावोनुं हेयपणुं, ए रीते हेय–
उपादेय तत्त्वनुं ज्ञान वर्ते छे, ने ते ज्ञानना बळे ते मोक्षमार्गने साधी रह्या छे. हजी
एने राग अने विकल्पो छे पण तेने ते मोक्षना साधनपणे नथी स्वीकारता; ते रागादि
भावोने पोताना स्वभावथी दूर राखे छे. श्रद्धामां–ज्ञानमां शुद्धस्वभावने नजीक राख्यो
छे, ने रागादि परभावोने दूर राख्या छे–जुदा राख्या छे. आवा श्रद्धा–ज्ञानसहित शुद्ध
आत्मानुं उपादेयपणुं धर्मात्माने गृहस्थपणामां पण होय छे. उपयोग अंदरमां मुकतां
आनंदमय थई जाय छे. राग वखतेय वीतरागी समाधिनी एक धारा तेने साथे ज वर्ते छे.
धर्मीने शुद्धात्मा नजीक छे, तेमांथी मोक्षमार्ग आवे छे, ने रागादि तो स्वभावथी
दूर छे, ते दूरमांथी कांई मोक्षमार्ग नथी आवतो. शुद्धात्मा वस्तु तो पोते ज छे; हुं पोते
ज परम आनंदनुं रत्न छुं.–आवी स्वसंवेदन–प्रतीति गृहस्थी धर्मात्माने पण होय छे.
एने श्रद्धामां समीपता कोनी? के शुद्धस्वभावनी समीपता छे, ने रागादि परभावो दूर
छे. ‘आ ज हुं’ एवी शुद्धतानुं उपादेयपणुं छे, ने रागादिमां तन्मयबुद्धि नहि–ते ज तेनुं
हेयपणुं छे. गृहस्थने पण आवा हेय–उपादेयना ज्ञानना बळे मोक्षमार्ग