Atmadharma magazine - Ank 274
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : ७ :
मने मारुं सिद्ध पद वहालुं









सिद्ध भगवानना परम सुखनी वात सांभळतां जिज्ञासुने सिद्धपदनी भावना
जागी...ते सिद्ध भगवान सामे जोईने बोलावे छे के हे सिद्ध भगवंतो! अहीं पधारो!
पण सिद्ध भगवंतो तो उपर, ते कांई उपरथी नीचे आवे? न आवे; ने सिद्ध
भगवानने अहीं उतार्या वगर जिज्ञासुने समाधान थाय नहि.
अंते, कोई अनुभवी धर्मात्मा एने मळ्‌या, ने एने कह्युं के तुं तारामां जो–तो
तने सिद्धपद देखाशे. तारा ज्ञानदर्पणने स्वच्छ करीने तेमां जो.....तो तने सिद्ध भगवान
तारामां ज देखाशे. ज्यां अंतर्मुख थईने सम्यग्ज्ञानरूप दर्पणमां जोयुं त्यां तो पोतामां
सिद्ध देखाणा; पोतानुं स्वरूप ज सिद्धपणे देखायुं..... पोताना आत्माने ज सिद्धस्वरूपे
देखतां धर्मी जीवने परम प्रसन्नता थई, परम आनंद थयो.......
आनो सार ए छे के हे जीव! तारुं सिद्धपद तारी पासे ज छे, बहारमां नथी.
माटे तारुं पद तारामां ज शोध. अंतर्मुख था.
(कथा पूरी....बोलो, भगवान रामचंद्रकी.......जे)
आ त म रा म की जे.........
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