: ६ : आत्मधर्म : द्वि. श्रावण : २४९२
“मा, मने चांदलियो वहालो....”
(आ वखते गुरुदेवना प्रवचनमांथी रामचंद्रनी एक असल मजानी कथां रजु थाय छे–)
नानपणमां भणतां त्यारे बाळपोथीमां एक कविता आवती के
‘मा! मने चांदलियो वहालो, ‘मा! मारा गजवामां आलो.’
एमां रामचंद्रना बाल्यजीवननो एक प्रसंग छे.
रामचंद्रजी नाना हता त्यारे एकवार राजमहेलनी अगाशीमां बेठेला, आकाशमां
पूनमनो चंद्र खीली रह्यो हतो....रामनी द्रष्टि चंद्र उपर पडी ने एना मनमां उमळको
जाग्यो के आ चांदो केवो चमके छे! हुं एने उपरथी उतारीने मारा गजवामां मूकुं!–आवा
उमळकाथी राम तो चंद्र सामे हाथ लंबाववा लाग्या....पण चन्द्र हाथमां न आव्यो एटले
रडवा लाग्या.....तेने छानो राखवा माटे सौए घणी महेनत करी.....पण आ तो रामनी
हठ.....ने ते चांदा माटे....ए चंद्रने लीधा वगर केम छाना रहे! कोई रीते छाना न रहे.....
अंते प्रधानजी आव्या....तेमणे जोयुं के आ रामचंद्रजी चांदा सामे हाथ लंबावीने
रडे छे....तरत ते समजी गया के हं....एने चांदो जोईए छे! तेमणे एक स्वच्छ अरीसो
मंगाव्यो ने बराबर चंद्र सामे राखीने रामचंद्रना हाथमां आप्यो....रामचंद्रजीए
अरीसामां जोयुं ने अरीसामां चंद्रने जोतां ज तेओ प्रसन्न थया......
आ छे रामचंद्रजीनुं द्रष्टांत; रामचंद्रजी धर्मात्मा हता; तेमना आ प्रसंग उपरथी
धर्मीना केवा भाव होय ते सिद्धांत समजवानो छे...... (ते माटे सामे पाने जुओ)