Atmadharma magazine - Ank 274
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : ९ :
आत्मगुणनी
मीठी–मधुरी वात
*
ज्यां चेतन त्यां सर्व गुण, केवळी बोले एम;
प्रगट अनुभव आत्मनो, निर्मळ करो सप्रेम....रे...
चैतन्यप्रभु! अमृत वरस्या छे तारा आत्ममां
योगसारनी आ ८प मी गाथा गुरुदेवने घणी
प्रिय छे, अवारनवार तेना रटण द्वारा तेओ
चैतन्यरसनुं घोलन करे छे....ने ज्यारे प्रवचनमां मधुरी
हलकपूर्वक तेनुं विवेचन करे छे त्यारे चैतन्यना
अमृतरसमां तरबोळ बनीने श्रोताजनो डोली ऊठे छे,
अहीं तेनी थोडीक झलक आपी छे.
हे जीव! तारा चेतनने ग्रहण करतां तेमां सर्वे गुणोनुं ग्रहण थई जाय छे.
अनंतगुणनी अनुभूति–तेमां विकल्पने अवकाश नथी.
जगतमां जे कोई सुंदरता होय, जे कोई पवित्रता होय, ते बधी तारा आत्मामां
भरी छे. एक आत्मामां अंतुर्मुखद्रष्टि करीने अनुभव करतां, तेमां अनंतगुणोनी
निर्मळता एक साथे प्रगटे छे. चेतनमय आत्मानी अनुभूतिमां सर्वे गुणोनी अनुभूति
आवी जाय छे. एक पर्यायमां बधा गुणोनो स्वाद भेगो छे. एकेक गुणनी गणतरीथी
आत्माना अनंतगुणने पकडवा मांगे तो अनंतकाळेय ते पकडाय नहि; अनंतगुणथी
अभेद आत्मामां उपयोग मुकतां अनंतगुणो स्फूट–प्रगट अनुभवाय छे. भाई, आवा
आत्माना अनुभवनी होंश ने उत्साह कर. विकल्पनी रागनी के बहारनी होंश करतां
तारा अनंतगुणना पिंडनो अनादर थाय छे. अरे, अनंत गुण तारामां भर्या छे, जेनु
ग्रहण विकल्प वडे थई न शके. माटे निश्चल थईने,