: द्वि. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : १५ :
नियम बताव्यो के चैतन्यस्वरूपनी अचल धारणा जेना चित्तमां छे ते ज जीव एकांत
मुक्ति पामे छे; परंतु ‘व्यवहारमां रागमां एकाग्रतावाळो जीव पण मुक्ति पामे छे’
एम अनेकांत नथी. जेनुं चित्त संदेहवाळुं छे, कदाच रागादिथी पण मुक्ति थशे–एम जे
माने छे, ने रागथी पार चैतन्यतत्त्वने अचलपणे श्रद्धा–ज्ञानमां धार्युं नथी ते मुक्ति
पामतो नथी ज.
नियमसार (कळश १९४) मां पद्मप्रभमुनिराज कहे छे के–योगपरायण होवा
छतां पण जे जीवने कदाचित भेदविकल्पो उत्पन्न थाय छे तेनी अर्हन्तदेवना मतमां
मुक्ति थशे के नहि ते कोण जाणे? एटले के योगपरायण एवा मुनिओने पण ज्यांसुधी
विकल्प छे त्यांसुधी मुक्ति नथी; निर्विकल्प थईने स्वरूपमां ठरशे त्यारे ज मुक्ति थशे.
जुओ, आ अर्हन्तदेवे कहेलो मोक्षमार्ग! विकल्पने अर्हन्तदेवे मोक्षनुं साधन नथी कह्युं.
अहो! मुक्तिनुं धाम तो आ चैतन्यतत्त्व छे, तेमां एकाग्र थये ज मारी मुक्ति
थवानी छे–आम निर्णय करे तो अल्पकाळमां मुक्ति थाय. पण ज्यां निर्णय ज ऊंधो
होय–रागने धर्मनुं साधन मानतो होय–ते रागमां एकाग्रताथी खसे शेनो? ने
स्वभावमां एकाग्रता करे क्यांथी? रागमां एकाग्रताथी तो रागनी ने संसारनी उत्पत्ति
थाय, पण मुक्ति न थाय. मुक्ति तो चैतन्यमां एकाग्रताथी ज थाय छे.
अहीं तो सम्यग्दर्शन उपरांत चैतन्यमां लीनतानी वात छे. सम्यग्दर्शन पछी
पण ज्यां सुधी राग–द्वेषथी चित्त अस्थिर–डामाडोळ रहे छे त्यांसुधी मुक्ति थती नथी;
रागद्वेष रहित थईने अंतरस्वरूपमां लीन थईने स्थिर रहे त्यारे ज मुक्ति थाय छे.
भूमिका अनुसार भक्ति वगेरेनो भाव धर्मीने आवे छे, पण ते मोक्षनुं कारण नथी.
चैतन्यस्वरूपमां लीनता वगर मुक्तिनी प्राप्ति असंभव छे.ाा ७१ाा
लोकसंसर्गवडे चित्तनी चंचळता रह्या करे छे ने चैतन्यमां स्थिरता थती नथी; माटे
लोकसंसर्ग छोडीने ज अंतरमां आत्मस्वरूपना संवेदनमां एकाग्रता थाय छे. जे लोकसंसर्ग
छोडतो नथी तेने चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रता थती नथी. माटे योगीजनो–साधक संतो
चैतन्यमां एकाग्रता अर्थे लोकसंसर्ग छोडे छे;–ए वात ७२ मी गाथामां कहे छे–
जनेभ्योवाक् ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः।
भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनैर्योगी ततस्त्यजेत्।।७२।।
लोकोना संसर्गवडे वचननी प्रवृत्ति थाय छे, वचनप्रवृत्तिथी मन व्यग्र थाय छे,–
चित्त चलायमान–अस्थिर थाय छे, अने चित्तनी चंचळता थतां अनेक प्रकारना
विकल्पोवडे मन क्षुब्ध थाय छे; माटे चैतन्य स्वरूपमां संलग्न एवा योगीओए
लौकिकजनोनो संसर्ग छोडवो जोईए. लौकिकजननोना संसर्ग वडे चित्तनी निश्चलता
थई शकती नथी.