: द्वि. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : २३ :
आ प्रमाणे नरकना दुःखनुं वर्णन करीने प्रीतिंकरस्वामी श्रीधरदेवने कहे छे के हे
भव्य! ते शतबुद्धिमंत्रीनो जीव पापकर्मना उदयथी बीजी नरकमां आवा दुःखो भोगवी
रह्यो छे. जे जीवो नरकना आवा तीव्र दुःखोथी बचवा चाहता होय ते बुद्धिमानोए
जिनेन्द्रप्रणीत धर्मनी उपासना करवी जोईए. आ जैनधर्म ज दुःखोथी रक्षा करे छे ने
महान सुख आपे छे; अने आ धर्म ज कर्मोना क्षयथी उत्पन्न थता मोक्षसुखने आपे छे.
ईन्द्र, चक्रवर्ती तथा गणधरपद आ जैनधर्मना प्रसादथी ज प्राप्त थाय छे, अने
तीर्थंकरपद पण आ ज धर्मथी प्राप्त थाय छे; सर्वोत्कृष्ट एवुं सिद्धपद पण आ धर्मथी ज
पमाय छे. आ जैनधर्म ज जीवोनो बंधु मित्र अने गुरु छे. माटे हे श्रीधरदेव! स्वर्ग–
मोक्षना सुख देनार एवा आ जैनधर्ममां तुं तारी बुद्धि जोड.
श्री प्रीतिंकर–मुनिराजना श्रीमुखथी जैनधर्मनो आवो महिमा सांभळीने पवित्र
बुद्धिधारक श्रीधरदेव अतिशय धर्मप्रेमने पाम्यो; ने प्रसन्नबुद्धिथी तेणे कह्युं–हे प्रभो!
आप महा उपकारी छो. महाबलना भवमां आपे ज जैनधर्मनो उपदेश आपीने मारुं
हित कर्युं, पछी भोगभूमिमां मुनिपणे पधारीने परम करुणापूर्वक आपे ज मने
सम्यग्दर्शन आप्युं ने अत्यारे पण अरिहंतपणे आपे मने धर्मनो उपदेश आपीने महा
उपकार कर्यो छे. अहो, प्रभो! आपना जेवा गुरुओनो संग जीवोने परम हितकार छे.
आम भक्तिथी फरी फरीने प्रीतिंकर केवळीना दर्शन कर्या बाद, पूर्वभवना
स्नेहने लीधे शतबुद्धिना जीवने प्रतिबोधवा माटे गुरुआज्ञानुसार ते श्रीधरदेव बीजी
नरकमां तेनी पासे गयो अने करुणापूर्वक कहेवा लाग्यो–हे भद्र शतबुद्धि! शुं तुं
महाबलने जाणे छे? हुं ज ए महाबलनो जीव छुं ने अत्यारे तने प्रतिबोधवा माटे
स्वर्गलोकमांथी अहीं आव्यो छुं. ते शतबुद्धिना भवमां अनेक मिथ्यानयोना आश्रये तें
प्रबळ मिथ्यात्वने सेव्युं हतुं. देख, ए मिथ्यात्वनुं आ घोर दुःखदायीफळ अत्यारे तारी
सामे ज छे. आवा घोर दुःखोथी बचवा माटे हे भव्य! तुं मिथ्यात्वने छोड ने
सम्यग्दर्शनने अंगीकार कर.
ए प्रमाणे श्रीधरदेवना उपदेशथी ते शतबुद्धिना जीवे शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण कर्युं
अने मिथ्यात्वरूपी मेलना नाशथी उत्तम शुद्धि प्रगट करी. अहो, नरकमां आवीने पण
आपे मने धर्म पमाडयो, आपे महाकृपा करी एम फरी फरीने तेणे श्रीधरदेवनो उपकार
मान्यो. त्यारबाद नरकनुं आयुष्य पूर्ण थतां शतबुद्धिनो ते जीव भयंकर नरकमांथी
नीकळीने पूर्व–पुष्करद्वीपना पूर्वविदेहमां मंगलावतीदेशनी रत्नसंचयनगरीमां महीधर
चक्रवर्तीनो जयसेन नामनो पुत्र थयो. एकवार तेना विवाहनो उत्सव थतो हतो ते
वखते श्रीधरदेवे आवीने तेने समजाव्यो ने नरकनां भयंकर दुःखोनुं स्मरण कराव्युं;
तेथी संसारथी विरक्त थईने तेणे यमधर मुनिराजनी समीप दीक्षा धारण करी; नरकमां
भोगवेला घोर दुःखो