: द्वि. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : २५ :
वि वि ध व च ना मृ त
(आत्मधर्मनो चालु विभाग: लेखांक २१)
(२७१) हे जीव! सत्संगना आ उत्तम योगमां तुं एवुं काम कर के जेथी तारा
ज्ञानधाममां तारो निवास थाय, तने आनंद थाय, ने दुःख कदी न थाय.–
आवी धर्मसाधना करवानो आ अवसर छे.
(२७२) जेम ऊंडा पाणीमां डूबतो मनुष्य पोतानी गभरामण आडे आखा जगतने
भूली जाय छे; तेम चैतन्यसागरमां ऊंडो ऊतरीने ध्यानमां जे मग्न थयो ते
जीव पोताना अतीन्द्रिय आनंद आडे आखा जगतने भूली जाय छे.
(२७३) शब्दनो शणगार के विकल्पोनी वणझार एनामां आत्ममहिमाने प्रसिद्ध
करवानी ताकात नथी. अनुभवगम्य एवुं आत्मतत्त्व, ते शब्दोमां के
विकल्पोमां क््यांथी आवे?
(२७४) जगतमां जेटला पवित्र परिणाम छे ते बधाय आत्माना ज आश्रये छे, बीजे
क््यांय नथी.
(२७प) सम्यक्त्वनो कोई अकथ्य अने अपूर्व महिमा जाणी ते पवित्र कल्याणमूर्तिरूप
सम्यग्दर्शनने, आ अनंत अनंत दुःखरूप एवा अनादि संसारनी आत्यंतिक
निवृत्ति अर्थे हे भव्यो! तमे भक्तिपूर्वक अंगीकार करो, समये समये
आराधो. ज्ञान, चारित्र अने तप ए त्रणे गुणोने उज्जवळ करनार एवी ए
सम्यक्श्रद्धा प्रथम आराधना छे.
– आत्मानुशासन
(२७६) हे श्रावक! आ भवदुःख तने वहाला न लागता होय ने स्वभावनो अनुभव
तुं चाहतो हो, तो तारा ध्येयनी दिशा पलटावी नांख; जगतथी उदास थई
अंतरमां चैतन्यने ध्यावतां तने परम आनंद प्रगटशे ने भवनी वेलडी क्षणमां
तूटी जशे. आनंदकारी परम आराध्य चैतन्यदेव तारामां ज बिराजी रह्यो छे.
(२७७) तारो मोक्ष तारा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रपरिणामथी छे, बीजा कोई वडे
तारो मोक्ष नथी.
(२७८) सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते स्वसन्मुख परिणाम छे.
(२७९) स्ववस्तुनी किंमतने चूकीने जे जीव परनी किंमत अधिक करे छे तेना परिणाम
परसन्मुख ज रहे छे; ने परसन्मुख परिणाम ते ज संसार.
(२८०) स्वनी उत्कृष्ट किंमत (महिमा) भासे तो परिणाम स्वसन्मुख थाय; ने
स्वसन्मुख परिणाम ते मोक्षनो मार्ग छे.