: द्वि. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : २७ :
अहो, आ तो अंतरमां एकत्वस्वभावने
स्पर्शीने आवेली वीतरागी सन्तोनी वाणी छे;
ते अंतरमां शुद्धात्मानो स्पर्श करावे छे.
(समयसार गाथा. ४ ना प्रवचनमांथी)
आत्माना एकत्वस्वभावनी प्राप्ति करवी जीवने अनंतकाळमां महा दुर्लभ छे. परथी
भिन्न, रागथी भिन्न, ने अनंत ज्ञानानंदस्वभावोथी एकमेक–आवा एकत्व–विभक्त शुद्ध
आत्मानो अनुभव जीवने सुलभ नथी, केमके तेनी रुचिपूर्वक श्रवण–परिचय जीवे कदी कर्यो
नथी. धर्मीने तो अंर्तस्वभावना अभ्यासवडे शुद्धात्मानी उपलब्धि थई गई छे एटले तेने
ते सुलभ थई छे. अज्ञानीने परनी रुचिवडे रागनी सुलभता छे, चैतन्यनी दुर्लभता छे; ने
ज्ञानी–सन्तोने अंतरना अनुभवमां चैतन्यनी सुलभता थई छे, चैतन्यनो लाभ थयो छे.
अनंतकाळे दुर्लभ–अप्राप्त एवो आत्मा, ते स्वानुभववडे ज्ञानीने सुलभ थयो छे. एने
कषायो–बंध भावो दुर्लभ ने दुःखदायक लागे छे. पोतानो स्वभाव पोतामां छे तेथी निश्चयथी
ते सुलभ छे, केमके तेमां प्राप्तनी प्राप्ति छे; पोतामां ज छे तेने अनुभववानुं छे, क््यांय
बहारथी मेळववानुं नथी. केमके परवस्तुनी प्राप्ति तो दुर्लभ–अशक््य छे केमके परवस्तु
अनंतकाळे पण पोतानी थती नथी. एकत्व स्वभाव ज सुंदर अने आनंददायक छे.
श्री आचार्यदेव कहे छे के अरे जीवो! अनंतकाळथी दुर्लभ एवो जे शुद्ध आत्मा, ते
शुद्धात्मा हुं मारा समस्त आत्मवैभवथी आ समयसारमां देखाडुं छुं, तमे तमारा
स्वानुभवथी तेने प्रमाण करजो. मात्र शब्दोथी के विकल्पथी नहि, पण स्वानुभव–प्रत्यक्षवडे
प्रमाण करजो. आम कहीने वाणी अने विकल्पोनुं अवलंबन काढी नांख्युं.
जीवोए अनंतकाळ शुभ–अशुभना चक्रमां ज काढयो छे; मोहथी शुभ–अशुभ–भावो
साथे एकता करीने तेमां ज अनादिथी परिणमी रह्यो छे, पण ते शुभाशुभथी पार एकलो
ज्ञानमात्र जे एकत्वस्वभाव, तेने कदी लक्षगत कर्यो नथी, ज्ञानी पासे प्रेमथी सांभळ्यो पण
नथी. शुभ–अशुभमां आत्मानी सुंदरता के शोभा नथी, आत्मानी सुंदरता ने शोभा तो
एकत्वस्वभावमां छे, ते स्वभावनो अनुभव ज सुखरूप छे. पुण्य–पापमां एकत्वथी तो
दुःखनुं ज वेदन छे. पुण्य–पापना चक्रमां परिभ्रमण करतो जीव भवचक्रमां भमी रह्यो छे;
एकत्वस्वभावनी प्राप्ति वडे ते भ्रमण केम टळे तेनी आ वात छे.
बहु पुण्य केरा पूंजथी
शुभदेह मानवनो मळ्यो,