Atmadharma magazine - Ank 274
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : द्वि. श्रावण : २४९२
तोये अरे! भवचक्रनो,
आंटो नहि एके टळ्‌यो,
शुभ भावथी मनुष्य अवतार अनंतवार पाम्यो, तोपण तेना वडे भवचक्रनो एक्केय
आंटो टळ्‌यो नहि. भवना नाशनो भाव एकवार प्रगट करे तो अनंतभवनो नाश थई जाय.
अनंत काळनुं भवभ्रमण टाळवा माटे कांई अनंतकाळ नथी लागतो, अनंतकाळनुं
भवभ्रमण एक क्षणमां स्वभावना सेवनवडे टळी जाय छे. पण अज्ञानने लीधे जीवोने ते
दुर्लभ थई पड्युं छे. तेथी आचार्यदेव कहे छे के मारा समस्त आत्मवैभवथी हुं ते एकत्व
स्वभाव दर्शावुं छुं, तेने हे जीवो! तमे प्रमाण करजो. जेवो शुद्धात्मा कहुं तेवो अनुभवमां
लेजो.
पहेले धडाके आत्मामां सिद्धने स्थापीने, अने विकारने आत्मामांथी जुदो पाडीने, हुं
एकत्व–विभक्त आत्मा दर्शावुं छुं;–के जेने जाणतां सादि–अनंत अपूर्व सुखनी प्राप्ति थाय,
ने आ भवचक्रनुं दुःख मटी जाय. भाई, आ तारा स्वभावनी वात छे, तेनी रुचिवडे
अंतरअभ्यास वडे ते सुलभ थाय छे, अनुभवमां आवे छे. ज्यां अंर्त स्वभावने लक्षगत
कर्यो त्यां ते स्वभाव साथे एकत्व परिणमन थयुं ने रागादि परभावोथी विभक्त परिणमन
थयुं. आवा एकत्व–विभक्तरूपे परिणमतो परिणमतो ते आत्मा मोक्षना पंथे चाल्यो.
एकछत्ररूप जे मोहनुं साम्राज्य हतुं तेमाथी ते बहार नीकळी गयो. स्वभावनी रुचि न हती
त्यारे मोहनो भार उपाडतो हतो, तेने शुद्धात्मानो अनुभव दुर्लभ हतो; हवे स्वभावनी
रुचिवडे ते ऊंधा प्रकारमांथी ते बहार नीकळी गयो, ने शुद्धात्मानी रुचिवडे तेनी प्राप्तिने
सुलभ बनावी दीधी.
अहो, आ तो एकत्वस्वभावने स्पर्शीने अंदरथी आवेली वीतरागी सन्तोनी वाणी
छे, ते अंतरमां शुद्धात्मानो स्पर्श करावे छे.
(वीर सं. २४९२ श्रावण सुद १३)
गणीत
(ज्यां गणीतनी त्रिराशी लागु पडती नथी)
एक जीवने एक गाउ दूरनी वस्तुने जाणतां एक समय लागे छे
तो हजार गाउ दूरनी वस्तुने जाणतां केटलो समय लागशे?
(कोई त्रिराशी मांडवा बेसे तो तेनो जवाब साचो पडे नहि. आ
एम बतावे छे के आत्मानो ज्ञानस्वभाव ए गणतरीनो विषय नथी.)