: द्वि. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : १ :
वंदित्तु सव्वसिद्धे–समयसारनुं अपूर्व मंगळ
सिद्धभगवंतोने नमस्कार ते साधकभाव छे; एवा साधकभावना परम
मंगळपूर्वक आ समयसार शरू थाय छे. समयसारमां कहेलो जे शुद्ध ज्ञायकभाव, तेना
घोलन वडे आत्मानी परिणति परम शुद्ध थशे ने मोहनो क्षय थशे. श्रोताकों भी साथमें
रखकर आशीर्वाद दिया कि ‘समयसार के घोलनसे तेरा मोहका नाश हो जायगा
ओर तूं सिद्ध बन जायगा।’
‘अथ’ शब्द नवीनता–अपूर्वता सूचवे छे: अनादिथी जे न हतो एवो अपूर्व
आराधकभाव प्रगट करीने हुं मारा आत्मामां सर्वे सिद्ध भगवन्तोने स्थापुं छुं. विभावथी
जुदो ने सिद्धनी स्थापनारूप आ आराधकभाव ते समयसारनुं अपूर्व मंगळ छे.
सिद्धोनी भावस्तुति स्वसन्मुखता वडे थाय छे. आ भावस्तुतिमां आत्मा पोते
ज आराध्य–आराधक छे. सिद्धनी आ भावस्तुतिमां रत्नत्रय समाय छे.
हुं सिद्धने वंदन करुं छुं, सिद्धनी स्तुति करुं छुं, एटले सिद्धसमान शुद्धस्वरूपने
साध्यरूपे स्वीकारुं छुं; सिद्धमां ने मारी पर्यायमां जे भेद होय तेने शुद्धद्रष्टिना बळे काढी
नांखुं छुं, ने सिद्ध जेवा शुद्धस्वरूपे मारा आत्माने ध्यावुं छुं. आ रीते सिद्धसमान पोताना
आत्माना चिन्तनथी भव्य जीव पोते सिद्ध थई जाय छे. जेणे पोताना आत्मामां सिद्धने
वसाव्या ते सिद्धपदनो साधक थयो. वीर थईने ते वीरना मार्गे चाल्यो.