Atmadharma magazine - Ank 274
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. श्रावण : २४९२ आत्मधर्म : १ :
वंदित्तु सव्वसिद्धे–समयसारनुं अपूर्व मंगळ









सिद्धभगवंतोने नमस्कार ते साधकभाव छे; एवा साधकभावना परम
मंगळपूर्वक आ समयसार शरू थाय छे. समयसारमां कहेलो जे शुद्ध ज्ञायकभाव, तेना
घोलन वडे आत्मानी परिणति परम शुद्ध थशे ने मोहनो क्षय थशे. श्रोताकों भी साथमें
रखकर आशीर्वाद दिया कि ‘
समयसार के घोलनसे तेरा मोहका नाश हो जायगा
ओर तूं सिद्ध बन जायगा।’
अथ’ शब्द नवीनता–अपूर्वता सूचवे छे: अनादिथी जे न हतो एवो अपूर्व
आराधकभाव प्रगट करीने हुं मारा आत्मामां सर्वे सिद्ध भगवन्तोने स्थापुं छुं. विभावथी
जुदो ने सिद्धनी स्थापनारूप आ आराधकभाव ते समयसारनुं अपूर्व मंगळ छे.
सिद्धोनी भावस्तुति स्वसन्मुखता वडे थाय छे. आ भावस्तुतिमां आत्मा पोते
ज आराध्य–आराधक छे. सिद्धनी आ भावस्तुतिमां रत्नत्रय समाय छे.
हुं सिद्धने वंदन करुं छुं, सिद्धनी स्तुति करुं छुं, एटले सिद्धसमान शुद्धस्वरूपने
साध्यरूपे स्वीकारुं छुं; सिद्धमां ने मारी पर्यायमां जे भेद होय तेने शुद्धद्रष्टिना बळे काढी
नांखुं छुं, ने सिद्ध जेवा शुद्धस्वरूपे मारा आत्माने ध्यावुं छुं. आ रीते सिद्धसमान पोताना
आत्माना चिन्तनथी भव्य जीव पोते सिद्ध थई जाय छे. जेणे पोताना आत्मामां सिद्धने
वसाव्या ते सिद्धपदनो साधक थयो. वीर थईने ते वीरना मार्गे चाल्यो.