Atmadharma magazine - Ank 274
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ४६ : आत्मधर्म : द्वि. श्रावण : २४९२
नथी तेनी मने खातरी छे, केमके ऊंची जातना एना धर्मसंस्कार एने जीवनमां कदी पण
पापना पंथे जवा नहि द्ये. अने समाजना बीजा माणसो के जेने जैनधर्मसंस्कार मळ्‌या नथी–
तेमांथी कोई अणसमजु जीवो मुर्खाईथी अभक्ष्यना अवळा मार्गे जाय तो तेनो शुं उपाय?
बने तो तेना मित्रोए तेने समजाववो जोईए. अने समाजमां जड–मूळथी ऊंचा धर्मसंस्कारो
रेडाय तो अभक्ष्य वगेरे पापप्रवृत्तिओ आपोआप निर्मूळ थई जाय.–ते माटे आपणे
बालविभागद्वारा प्रयत्न करी ज रह्या छीए. बालविभागना एके एक सभ्यनुं जीवन उच्च
आदर्शवाळुं बनशे तेमां कोई शंका नथी. बालविभागमां “रात्रि भोजनत्याग” नी एक
झुंबेश उपाडवा विचार छे.
* आत्मधर्ममां “बालविभाग” तथा ‘वांचको साथे वातचीत’ शरू थया पछी
केटलाय जिज्ञासु भाईओ तरफथी तेने पाक्षिक बनाववानी मागणी सतत आव्या करे छे. आ
संबंधमां जिज्ञासु पाठकोनी भावनानो संपूर्ण ख्याल ‘आत्मधर्म’मां रजु थई गयो छे, एटले
हवे वधु पत्रो अहीं रजु करता नथी.
* प्र. आत्मा एटला परमात्मा? के परमात्मा एटला आत्मा? (नं. १७१ कुंडला)
उ. “
अप्पा सो परमप्पा” (माटे बंने सरखा) आम स्वभावअपेक्षाए बधा आत्मा
परमात्मा छे. पण बहिरात्मा, अंतरात्मा ने परमात्मा ए त्रण प्रकारनी अपेक्षाए जोईए
तो अंतरात्मा असंख्याता छे. परमात्मा तेनाथी अनंतगुणा छे, अने बहिरात्मा तेनाथी पण
अनंतगुणो छे.
* महेशकुमार जैन (सांगली : नं. ३४३) दर्शनकथा पुस्तक सौए वांच्युं, बहुज गम्युं, ने
ते प्रमाणे वर्तवानुं शरू कर्युं छे; ते माटे धन्यवाद! ते दर्शनकथानुं मराठी भाषांतर करवानी तमारी
ईच्छा छे. तो खुशीथी करशो.
*एक जिज्ञासु (एम) पूछावे छे–” हुं पचीस वर्षथी दिगंबर जैनधर्ममां छुं, १२ वर्षथी
हंमेशा भगवाननां दर्शन करुं छुं; छतां हजी मने धर्मनी समजण नथी; अत्यार सुधी
बालबच्चाने ऊछर्या ने घरकाममां जींदगी काढी, हवे बालविभाग तथा दर्शनकथा वांच्या पछी
मने धर्ममां खूब ज रस पडे छे, पण मारे पहेलेथी शुं करवुं ने केम आगळ वधवुं? तेनो जवाब
आत्मधर्ममां देशो. मारे त्यां धर्मना बधा पुस्तको छे. मने धर्मनी खुब ज ईच्छा छे पण हजी
समजण पडती नथी, तो समजण पडे तेवुं लखशोजी.
बहेन, आपना पत्रमां जिज्ञासा अने मुंझवण बंने देखाई आवे छे. पहेलां तो
हताशाने के मुंझवणने खंखेरी नाखीने आत्माने उत्साहमां लावो के मारे जीवनमां धर्मनी
समजण करीने आत्मानुं हित साधवुं ज छे. साची जिज्ञासानुं बळ होय त्यां समजण शक्ति
जरूर खीली जाय छे. आ माटे साक्षात् ज्ञानीओना सत्संगमां रहेवानुं बने तो उत्तम. अने ते
सिवाय साधर्मीनो संग विशेष उपयोगी थशे. श्रीम्द राजचंद्रजीनुं वचन छे के उल्लासित
वीर्यवान जीव आत्माने साधी शके छे. पूर्वे अन्यकार्योंमां काळ वीत्यो तेनो शोच करवो
नकामो छे, केम के ज्यां सुधी जीव आराधक