: ८ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
अंतरमां सुंदर बोधतरंग ऊछळे छे. जुओ, आ आत्मा समज्यानी निशानी! बहारना
उघाडनी साथे संबंध नथी, अंदरनुं कार्य अंदरमां थाय छे. आत्मा समजवा माटे ज्ञानी
सामे टगटग जोतो हतो, तेणे ज्ञानने अंतरमां एकाग्र कर्युं के तुरत ज अंतरमां
आनंदनी उत्पत्ति थई; तुरत ज उपदेश परिणमी गयो, ते अनुसार अंदरमां अनुभव
प्रगट क््यो; ए रीते अधिगमज सम्यक्त्वनी वात आचार्यदेवे लीधी छे. समजनारने
ऊंडी धगश छे एटले जाणे उपदेश देनारनी हाजरीमां ज अनुभव करी ल्ये छे एवी
शैलि छे. जेवी वात काने पडी के तुरत ज अंदर परिणमी गई. जेवुं गुरुए संभळाव्युं
तेवुं समजीने शिष्ये अनुभव्युं. त्यां अंदर निर्विकल्प आनंदसहित सुंदर मनोहर
ज्ञानतरंग ऊछळे छे. ‘अनुभव थतां आत्मामां अतीन्द्रिय सुखनो सागर ऊछळ्यो!’
अनंतकाळमां नहि मळेलो एवो आनंद ने उल्लास एने स्वसंवेदनमां थाय छे.
लक्षने भेद उपरथी खसेडीने ज्यां अंदर अभेद आत्मामां आव्यो त्यां सुंदर
‘ज्ञानचेतना’ जागी, साथे आनंदनो अनुभव थयो, ‘चैतन्यना आ.....आत्मा आ....हुं
आवो....मारो स्वाद आ.....’ एम विकल्प वगरनो आत्मानो साक्षात्कार कर्यो त्यारे
आत्मा शब्दने अर्थ सुंदर रीते–साची रीते समज्यो. अने आ जे आनंद अने ज्ञाननुं
वेदन थयुं ते ज हुं छुं–एम पोते पोताने बराबर ओळख्यो. बोलतां ने बीजाने
समजावतां आवडे के न आवडे तेनी साथे संबंध नथी, अंदर आत्मामां एकाग्र थयो ने
आनंदना अनुभव सहित सम्यग्ज्ञानना किरण फूटया त्यारे ज समज्यो एम कह्युं.
आवी दशा वगर शास्त्रना भणतरथी कदाचित ‘आत्मा’ नी वात करे तोपण ते
आत्मा’ ना भावने समज्यो छे एम कहेता नथी. अहीं तो वाच्य–वाचकना अपूर्व
मेळनी वात छे. ‘आत्मा’ एवो वाचक शब्द कहेनार ज्ञानीना आशयमां जेवुं वाच्य हतुं
तेवुं वाच्य पोते अंतर्मुख थईने पकडी लीधुं, त्यारे ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ समज्यो–ए
समज्यानी निशानी शुं? तो कहेे छे के तरत ज एना अंतरमां अत्यंत आनंदसहित
सुंदर बोधतरंग ऊछळ्या, ते आत्माने समज्यानी निशानी छे.
अहा, कुंदकुंदाचार्यदेवनी शैली ज कोई अलौकिक छे. धोधमार दिव्यध्वनि जेवा
तेमनां वचनो छे. तेओ कहे छे के अमे अमारा अने श्रोताना आत्मामां सिद्धपणुं
स्थापीने शरूआत करीए छीए; आवुं मांगळिक करीने सिद्धने साथे राखीने
साधकभावमां ऊपड्या, ते हवे सिद्धपद सुधी वच्चे क्यांय अटकवाना नथी.
श्रोतानी श्रवणमां अपूर्वता
जुओ तो खरा, श्रोता पण केवो लीधो छे! के आत्मानो खपी छे. एकला
आत्मानो खपी छे. आचार्यदेवे उपदेशमां जे कह्युं ते तुरत ज सुंदर रीते समजी जाय छे.
“ज्ञान ते आत्मा–एम कहीने श्रीगुरु मने जे बताववा मागे छे ते आ” एम अंतरमां
वाच्य तरफ वळीने ज्यारे स्वसंवेदन कर्युं त्यारे सुंदर बोधतरंग ऊछळ्या एटले रागथी