(७) ब्रह्मचर्य, (८) आरंभत्याग, (९) परिग्रहत्याग (१०) अनुमतित्याग अने
(११) उदिष्टत्याग; सुविधिराजा श्रावकधर्मनां आ अगियार स्थानोनुं क्रमक्रमथी पालन
करतां हता. अहिंसा वगेरे पांच अणुव्रतोनुं तेओ पालन करता हता. ते दरेक
अणुव्रत ते दरेक व्रतनी पांच–पांच भावनाओ साथे अने सम्यग्दर्शननी विशुद्धिथी
संयुक्त धारण करवामां आवे तो तेनाथी गृहस्थने मोटा मोटा फळनी प्राप्ति थाय छे.
गृहस्थोने माटे बार व्रतनुं पालन ते स्वर्गरूपी राजमहेलनी सीडी छे, अने ते नरकादि
दुर्गतिने दूर करनार छे. सम्यग्दर्शनवडे व्रतोनी शुद्धताने पामेला ते राजर्षि सुविधि
दीर्धकाळ सुधी श्रावकपणे रहीने श्रेष्ठ मोक्षमार्गनी आराधना करता हता. अने जीवनना
अंत समये तेमणे सर्व परिग्रह छोडीने दिगंबर मुनिदीक्षा धारण करी, ने विधिपूर्वक
उत्कृष्ट मोक्षमार्गनी आराधना करीने समाधिपूर्वक शरीर छोडयुं ने अच्युतस्वर्गमां
ईन्द्रपणे ऊपज्या. तथा तेनो पुत्र केशव (–श्रीमतीनो जीव) पण निर्ग्रंथ मुनि थई
राजपुत्रो (सिंह वगेरेना चारे जीवो) पण पोतपोताना पुण्योदयथी ते अच्युत स्वर्गमां
ज ईंद्र समान ऋद्धिधारक देव थया.–खरूं ज छे, पूर्वभवना संस्कारोथी जीवो एक
जग्याए एकठा थई जाय छे.
पहोंची शकती न हती. मस्तक उपर धारण करेला कल्पवृक्षना मनोहर पुष्पोथी ते एवा
लागता हता–जाणे के पूर्वभवना तपश्चरणना महान फळने माथे उपाडीने बधाने
तेना प्रत्येक अंग उपर दयारूपी वेलडीनां फळ झुलतां होय. कल्पवृक्षनी जेम ते ईन्द्र
शोभता हता, एना चरणोनी पण अद्भुत शोभा हती. एना अच्युत स्वर्गमां उत्पन्न
थयेला भोगोने ते अनुभवता हता. सोळमुं अच्युत स्वर्ग जो के आ मनुष्यलोकथी छ
राजु (असंख्याता योजन) ऊंचे छे, छतां पण सुविधिराजाने पुण्यप्रभावथी ते स्वर्ग
भोगोपभोगनुं स्थान बनी गयुं. खरेखर, पुण्यथी शुं प्राप्त न थाय!