Atmadharma magazine - Ank 275
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
प र म शां ति दा ता री
अध्यात्मभावना
आत्मधर्मनी सहेली लेखमाळा
लेखांक: नं. ४०] [अंक २७४ थी चालु
भगवानश्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधिशतक’ उपर पू. कानजीस्वामीनां
अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
वीर सं. २४८२ असाड वद नोम:
(समाधिशतक गा. ७२ चालु)
आ देहथी जुदो हुं कोण छुं? अनादिकाळथी आ भव–अटवीमां परिभ्रमण केम
थई रह्युं छे? आत्माने शांति केम नथी मळती?–एम जेने जिज्ञासा जागी होय एवा
जीवने आचार्यदेव शांतिनो उपाय बतावे छे. आत्मा शरीरथी जुदो होवा छतां, शरीरने
ज पोतानुं माने छे ते भ्रांति छे, ने ते भ्रांतिने लीधे ज अनादिकाळथी अशरणपणे
भव–अटवीमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. लक्ष्मीना ढगला के स्त्री–आदि कुटुंबीजन ते
कोई जीवने क्षणमात्र पण शरणभूत नथी पण मूढ जीव तेने शरणरूप माने छे ने तेमां
सुख माने छे. जुओ, मरणनां छेल्ला टाणां आवे, अंदर मुंझवणथी दुःखी थतो होय,
बहार लक्ष्मीना ढगला पड्या होय ने स्त्री–पुत्र वगेरे टगटग जोता ऊभा होय, त्यां
एम प्रार्थना करे के हे लक्ष्मीना ढगलाओ! हे स्त्रीओ! तमे मने शरण आपो.–तो शुं ते
कोई जीवने शरणुं आपशे? शुं ते दुःख मटाडी देशे?–नहि; केमके आ शरीर पण जीवने
शरणरूप नथी तो पछी तद्न जुदा एवा बीजा संयोगोमां शरण केवुं? भाई! तने
शरणरूप तो तारो आत्मा छे. अशरीरी–अरूपी–चैतन्यमूर्ति आत्मा ज तारुं स्व छे, ते
ज तारी खरी लक्ष्मी छे, एना सिवाय जगतमां कोई बीजुं तने शरणरूप नथी. अज्ञानी
भ्रमथी मंदकषायने शांति मानी ल्ये छे, पण तेमां कांई साची शांति के आनंद नथी. हुं
जेटलो मारा स्वरूपमां अंतर्मुख रहुं तेटली मने शांति छे, ने बहारमां