Atmadharma magazine - Ank 275
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : १९ :
वलण जाय तेटली आकुळता छे. आवो निर्णय तो ज्ञानीए कर्यो छे, अने ते उपरांत
बाह्य संसर्ग छोडीने चैतन्यस्वरूपमां विशेषपणे एकाग्र थवानी भावना भावे छे.
लोकसंसर्गथी मन चंचळ थाय छे माटे चैतन्यमां स्थिर थवा माटे लौकिक संसर्गनो
परित्याग करवो–एम उपदेश छे. चैतन्यस्वरूप तरफ झुकतां बाह्य संसर्ग प्रत्ये वलण ज
जतुं नथी; माटे कहे छे के हे योगी! आत्माना आनंदमां एकाग्र थवा माटे तुं बाह्य
संसर्गने छोड ने चैतन्यस्वभावमां ज निवास कर.
असंगी थईने, विकल्पनोय जेमां संसर्ग नथी एवा अंतरना तत्त्वने जे साधवा
मांगे छे तेने बहारनो संग गमे ज नहि. लौकिक प्रसंगोना ज परिचयमां रह्या करे तो
असंगस्वभाव तरफ परिणाम क्यांथी वळशे? कांई परवस्तु आना परिणामने
बगाडती नथी पण पर तरफना संगनो प्रेम ते अंतरनी एकाग्रताने रोके छे. माटे एवो
उपदेश छे के मुमुक्षुए लौकिकजनोना परिचयना प्रसंगमां बहु न आववुं. श्रीमद्राजचंद्र
पण कहे छे के लोकसंज्ञावडे लोकाग्रे जवातुं नथी; एटले के लोकपरिचयना परिणाम रह्या
करे ने आत्मानो मोक्ष पण सधाय एम बनतुं नथी. भले निमित्त परिणामने बगाडतुं
नथी, पण तारुं वलण शुद्धआत्मामांथी खसीने निमित्तना संग तरफ केम गयुं?
उपदेशमां तो निमित्तथी कथन आवे के तुं परसंग छोड; ज्यां शोरबकोर चालतो होय ने
विषयकषायोनी वातो थती होय एवा प्रसंगनो संग तुं छोड, एटले चैतन्यमां तारुं
चित्त जोड; बहारना संगमांथी लक्ष हठावीने एकान्तमां अंदर ऊतरीने आत्मानुं ध्यान
कर. मुमुक्षुए एकान्तमां रहीने आत्माने साधवो. आत्मानी साधना अंदर समाय छे;
ए कांई बीजाने देखाडवा माटे नथी. अंदरना सूक्ष्म संकल्प–विकल्पो पण स्वरूपनी
स्थिरताना बाधक छे, तो पछी बहारना संग तरफ लक्ष जाय ते तो बाधक छे ज. एथी
करीने बहारना लक्षवाळाने मिथ्यात्व छे–एम नथी, पण बहारनुं लक्ष अंतरमां
स्थिरता थता देतुं नथी एटले अंतिम ध्येयरूप जे मोक्ष तेने ते रोके छे. माटे हे भव्य!
आत्माने साधवा तुं बहारनुं लक्ष छोडीने असंगपणे अंतरनी चैतन्य गूफामा जा....ने
तेनुं ध्यान कर. ।। ७२ ।।
बाह्य संसर्गथी चित्त क्षुब्ध थाय छे, माटे बाह्य लौकिकजनोनो संसर्ग छोडवा
जेवो छे–एम कह्युं. त्यां कोई बहिरात्मा एम समजे के “आ बधुं छोडीने जंगलमां
एकला जईने रहेवुं, एकांत जंगलमां जवाथी आत्मामां एकाग्रता थशे; गाममां मने
धर्म नहि थाय ने जंगलमां थशे;–आ प्रमाणे बहारना संयोग–वियोग उपर जेनी द्रष्टि
छे ते अनात्मदर्शी,–ते आत्माने नथी देखतो पण संयोगने ज देखे छे; ने आत्माने देखनार
ज्ञानी तो परथी भिन्न निजात्मामां निश्चलपणे रहे छे–ए वात हवेना श्लोकमां कहे छे–
ग्रामोऽरण्यमिति द्वेघा निवासोऽनात्मदर्शिनाम्
दष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः।। ७३ ।।