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बहारमां पोतानो निवास माने छे; पण जेणे आत्मस्वरूपनो अनुभव कर्यो छे एवा
आत्मदर्शी अंतरात्मा तो परथी भिन्न रागादिरहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माने ज
पोतानुं निश्चल निवासस्थान माने छे, ने बाह्य संसर्ग छोडीने ते अंतरस्वरूपमां वास
करे छे–तेमां एकाग्र थईने रहे छे. अज्ञानीनी बाह्यद्रष्टि छे एटले ज्यां लोकसंसर्ग
छोडवानुं कथन आवे त्यां तेनी द्रष्टि जंगल उपर जाय छे; केम जाणे जंगलमां एनी
शांति होय! भाई, जंगलमां पण तारी शांति नथी, शांति तो आत्मामां छे, माटे
आत्मामां ऊंडो ऊतर तो तने शांति थाय. बहारनी जंगलनी गूफामां तो सिंह–वाघ ने
सर्पो पण रहे छे; माटे तुं अंतरना चैतन्यनी गिरिगूफामां जईने ध्यान कर–तो तने
आनंदनो अनुभव थाय. अहो! मुनिवरो चैतन्यगूफामां ऊंडा उतरीने ध्यान करता होय
त्यारे एवा आनंदमां लीन होय छे के जाणे सिद्धभगवान! आवा अंतरना स्वरूपने
भूलीने अज्ञानीनी द्रष्टि बाह्य जंगलमां जाय छे. लोकसंसर्ग छोडवानी वात आवे त्यां
ज्ञानीनुं वलण अंतरस्वरूपमां जाय छेेे.......के हुं तो जगतथी जुदो ज छुं ने जगत
माराथी जुदुं ज छे; मारा स्वरूपमां जगतनो प्रवेश नहि, ने जगतमां मारो वास नहि;
मारुं चिदानंदस्वरूप ते ज मारुं निवासस्थान छे, ए सिवाय बहारनुं जंगल के महेल ते
कांई मारुं निवासस्थान नथी. अज्ञानीए जंगलमां शांति मानीने, जंगल प्रत्ये प्रेम
कर्यो, पण आत्मातरफ वलण न कर्युं,–तेथी जंगलमां पण तेने शांति नहि मळे.
लौकिक मंदकषायमां ज धर्म मानीने रोकाई जशे ने चैतन्यतत्त्व शुं छे ते समजवानी
दरकार नहि करे तो तेनो अवतार पण निष्फळ चाल्यो जशे, तेने आत्मानी शांति नहि
थाय. माटे आचार्यभगवान कहे छे के अरे जीवो! आवो दुर्लभ मानवअवतार मळ्यो
तो आत्मानुं हित शुं छे तेनो उपाय करो. आ देह अने लक्ष्मीना संयोगो तो आत्माथी
जुदा ज छे, ते बधा अहीं पड्या रहेशे ने आत्मा बीजे चाल्यो जशे. माटे ते शरीरादिथी
भिन्न चैतन्यतत्त्व शुं छे तेने लक्षमां ल्यो....ने तेमां निवास करो. आ शरीर तो
क्षणभंगुर छे, ते आत्मानुं निवासस्थान नथी. ज्ञान–आनंदरूप स्वभाव ज आत्मानुं
निवासस्थान छे. अरे, राग पण आत्मानुं खरूं निवासधाम नथी, अनंतगुणरूप वस्तु
ते ज आत्मानुं खरूं निवासधाम छे.