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जंगलमां रहुं तो शांति थाय’–एवी मान्यतावाळो पण बहिरात्मा छे. जेम लोको बाह्य
छे तेम जंगल पण बाह्य छे. लोकसंसर्गनो प्रेम छोडीने जंगलनो प्रेम कर्यो तो ते पण
बाह्यद्रष्टि ज छे. ज्ञानी तो लोकसंसर्ग छोडीने अंतरना चैतन्यतत्त्वमां निवास करे छे.
जंगलथी मने शांति छे–एवी बुद्धि नथी, जंगल पण पर छे, अमारो वास तो अमारा
शुद्धस्वरूपमां ज छे, अंतरस्वरूपमां एकाग्र थया त्यां जाणे सिद्धभगवाननी साथे बेठा!
समस्त पदार्थोथी विभक्त एवो जे पोतानो आत्मा तेमां ज मुनिओ वसे छे.
जंगलमांथी आहारादि माटे गाममां आवे, ने लोकोनां टोळां नजरे पडे त्यां मुनिने कांई
संदेह नथी थई जतो के हुं स्वरूपमांथी खसीने लोकसंसर्गमां आवी गयो. चारेकोर
भक्तोनां टोळां होय छतां मुनि जाणे छे के मारो आत्मा लोकसंसर्गथी पर छे, मारा
चैतन्यस्वरूपमां ज मारो निवास छे. बहारमां भक्तोनां टोळां वच्चे बेठा छे माटे तेने
बाह्यद्रष्टि छे–एम नथी; तेम ज बहारमां लोकोनो संग छोडीने जंगलमां जईने गूफामां
सर्वलोकथी जुदो ज छे, ज्ञानानंदस्वरूप मारो आत्मा ज मारुं निवासधाम छे,–आवी
अंतरद्रष्टिपूर्वक ज्ञानी तेमां ज एकाग्र थाय छे: ने चैतन्यना आनंदमां एकाग्र थतां
बाह्य संसर्ग प्रत्ये राग–द्वेष थता नथी तेथी तेमणे बाह्य संसर्ग छोडयो–एम कहेवामां
आवे छे.
भगवानना दर्शन करवा माटे पगे
भगवाननां दर्शन थशे?