: २४ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
सम्यग्दर्शनादि परिणामनो के अज्ञान परिणामनो ते जीव पोते ज कर्ता छे, बीजो कोई
कर्ता नथी. आवी स्पष्ट वस्तुस्थिति जगतमां सर्व द्रव्योमां प्रकाशे छे. छतां मोही जीवो
स्वभावथी चलित थईने आकुळता ने कलेश पामे छे.
आचार्यदेव समजावे छे के अरे मोही जीवो! व्यर्थ कलेश कां पामो! स्वद्रव्य ने
परद्रव्य अत्यंत भिन्न भिन्नपणे ज प्रकाशी रह्यां छे, कोईनो बीजामां जरा पण प्रवेश ज
नथी;–तो पछी परज्ञेयो साथे तमारे परमार्थे कांई ज संबंध नथी. माटे आवी
वस्तुस्थिति समजीने तमे तमारा स्वज्ञेयमां ज केम नथी रहेता! अन्यवस्तुओ सदाय
तमाराथी बहार ज रहे छे तो ते तमारामां शुं करी शके? अने आ चेतन अन्यवस्तुथी
बहार ज रहे छे तो अन्यवस्तुमां आ चेतन शुं करे?–आवी अत्यंत भिन्नता जाणीने
ज्ञायक स्वभावरूप स्वज्ञेयनो आश्रय करवो ए ज कर्तव्य छे.
स्व–परनी भिन्नता जाणीने हे जीव! तुं धीरो था, शांत था, ने तारा स्वद्रव्यने
साधवामां ज तत्पर था. स्वद्रव्यने साधवामां तत्पर जीव परथी अत्यंत भिन्नता
जाणतो थको, अनुकूळताना गंजमां ओगळतो नथी ने प्रतिकूळताना गंजथी घेरातो
नथी. अनुकूळताना गंज हो के प्रतिकूळताना पहाड हो, तेनाथी पोताने सर्वथा भिन्न
जाणतो थको, शुद्धज्ञानपणे ज पोते पोताने अनुभवे छे.
अहो, तारुं सर्वस्व तारामां
परमां तारुं कांई नहि;
परनुं सर्वस्व परमां
तारामां परनुं कांई नहि.
केटली शांति! पोते पोतामां रह्यो त्यां कलेश केवो? स्व–परनी अत्यंत
भिन्नताना भानमां मोहनो अभाव छे, मोह नथी त्यां कलेश पण नथी, परम
निराकूळता ने शांति छे.
(समयसार: कलश २११–२१२)