: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : २९ :
“श्रावण वद बीज” ना प्रवचनमांथी प्रसादी”
(२८१) आत्मानुं सम्यग्दर्शन केम थाय तेनी आ वात छे. सम्यग्दर्शन माटे
जैनशासननो मूळसिद्धांत आचार्यदेवे आ ११मी गाथामां समजाव्यो छे.
शुद्धनयवडे भूतार्थस्वभावनो आश्रय करनार सम्यग्द्रष्टि छे.
(२८२) विकार अने आत्माने शुद्धनयवडे भिन्न करीने शुद्ध भूतार्थ आत्माने जे
अवलोके छे ते सम्यक्स्वरूपने देखे छे एटले ते सम्यग्द्रष्टि छे.
(२८३) शुद्ध परमस्वभावरूप जे अंततत्त्व छे ते ज सम्यग्द्रष्टिने उपादेय छे; ने तेना
आश्रये रत्नत्रयरूप धर्मनी लब्धि थाय छे.
(२८४) स्वसमयनी शरूआत चोथा गुणस्थानथी थई जाय छे. स्व–परनी भिन्नता
समजीने, पोताना स्वद्रव्यनी सन्मुख ज्ञानपरिणमन थयुं तेनुं नाम
‘स्वसमय’ छे. स्वना आश्रये जेटलुं सम्यक्–शुद्ध परिणमन थयुं तेटलुं
स्वसमयपणुं छे. जेटलो रागादि विकार छे तेटलो परसमय छे.
स्वसमयपणा वगर धर्मनी शरूआत थाय नहि. चोथा वगेरे गुणस्थाने
स्वसमयपणुं नथी एम कोई कहे तो तेनो अर्थ त्यां धर्म ज नथी–साधकपणुं
ज नथी, एवो थयो. पण ए वात साची नथी. चोथा गुणस्थाने स्वसमयपणुं
छे तेने जे नथी ओळखतो तेने धर्मना स्वरूपनी खबर नथी. सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्रनो अंश चोथा गुणस्थाने प्रगट्यो छे तेटलुं स्वसमयपणुं छे.
(२८६) चोथा गुणस्थाने स्वसन्मुखद्रष्टिवडे स्वसमयपणुं थतां आनंदनी उपलब्धि
थई छे. सिद्धप्रभु जेवा आनंदनो अनुभव चोथा गुणस्थानमां घरमां रहेला
सम्यग्द्रष्टिने पण वर्ते छे. अंतरमां आनंदथी भरेलो भूतार्थस्वभाव तेना
अवलंबने ते आनंद प्रगट्यो छे. आवा स्वभावनी द्रष्टि करवी ते अपूर्व छे.
(२८७) बीजना जन्म–दिवसनो उल्लेख करीने गुरुदेवे कह्युं के अरे! आजे तो एम
थयुं के अहीं सीमंधरपरमात्माना विरह पड्या. विदेहक्षेत्रमां साक्षात् सीमंधर–