Atmadharma magazine - Ank 275
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : भादरवो : २४९२
दश धर्मनुं स्वरूप
(पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी)
सम्यक्त्वपूर्वकना वीतरागभाव वडे जेनी आराधना
थई शके छे एवा उत्तमक्षमादि दश धर्मोनुं स्वरूप अहीं
पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी संक्षेपमां आपवामां आव्युं छे.
मुनिवरो एना मुख्य आराधक छे, ने श्रावके पण तेनुं स्वरूप
ओळखीने शक्ति अनुसार तेनी उपासना करवी.
* गमे ते परिस्थितिमां पण चैतन्यभावनाना बळे वीतरागी समभावमां टकी
रहेवुं ने क्रोधरूप विषमभाव थवा न देवो ते उत्तम क्षमाधर्म छे. मोक्षमार्गी
सन्तोने आ क्षमा सहचरी छे. क्रोधनी उत्पत्ति साधकभावमां बाधा करनारी छे,
एम समजीने तेने दूरथी ज छोडवो, ने क्षमाभावने मोक्षनो साधक जाणीने
अंगीकार करवो.
* देह–रूप–जाति–कूळ वगेरे करतां मारो ज्ञानस्वभावी आत्मा ज जगतमां श्रेष्ठ
छे–एवी भावनावडे मदनी उत्पत्तिनो अभाव थाय छे, एटले के मार्दवधर्म थाय छे.
* मारा रत्नत्रयमां मने कोई दोष न हो–एवी भावनावडे, रत्नत्रयमां लागेला
कोई दोषने छूपाव्या वगर गुरु समीपे सरलपणे व्यक्त करीने ते दोष छोडवा ते
आर्जवधर्म छे.
* भेदज्ञानवडे सत्य स्वभावने जाणनार जीव, जिनवाणीअनुसार सत्य वचन
बोले ने असत्य बोलवानी वृत्ति न थाय ते सत्यधर्म छे.
* भेदज्ञाननी भावनाना बळथी रत्नत्रयनी आराधनामां तत्पर अने भव–तन–
भोगथी विरक्त एवा जीवने ममत्वरूप मलिनभाव थतो नथी, ने रत्नत्रयनी
शुचिता टकी रहे छे ते शौचधर्म छे. (शौच=पवित्रता)
* चैतन्यना परम शांतरसमां निमग्नतावडे ईन्द्रिय विषयो तरफनी वृत्ति के
क्रोधादि कषायोनी उत्पत्ति न थाय, स्वरूपनी आराधनामां सम्यक् प्रकारे उपयोग
जोडायेलो रहे ते संयमधर्म छे.