पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी संक्षेपमां आपवामां आव्युं छे.
मुनिवरो एना मुख्य आराधक छे, ने श्रावके पण तेनुं स्वरूप
ओळखीने शक्ति अनुसार तेनी उपासना करवी.
सन्तोने आ क्षमा सहचरी छे. क्रोधनी उत्पत्ति साधकभावमां बाधा करनारी छे,
एम समजीने तेने दूरथी ज छोडवो, ने क्षमाभावने मोक्षनो साधक जाणीने
अंगीकार करवो.
छे–एवी भावनावडे मदनी उत्पत्तिनो अभाव थाय छे, एटले के मार्दवधर्म थाय छे.
कोई दोषने छूपाव्या वगर गुरु समीपे सरलपणे व्यक्त करीने ते दोष छोडवा ते
आर्जवधर्म छे.
बोले ने असत्य बोलवानी वृत्ति न थाय ते सत्यधर्म छे.
भोगथी विरक्त एवा जीवने ममत्वरूप मलिनभाव थतो नथी, ने रत्नत्रयनी
शुचिता टकी रहे छे ते शौचधर्म छे. (शौच=पवित्रता)
क्रोधादि कषायोनी उत्पत्ति न थाय, स्वरूपनी आराधनामां सम्यक् प्रकारे उपयोग
जोडायेलो रहे ते संयमधर्म छे.