Atmadharma magazine - Ank 275
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : ३ :
* गमे तेवो उपद्रव आवे तोपण पोताना चैतन्यना चिंतनथी च्यूत न थवुं ने
विषयकषायोरूपी चोरने उपयोगघरमां प्रवेशवा न देवा ते तप छे. आ तप
विषयकषायोरूपी चोरथी पोताना रत्नत्रयरूपी धनने बचाववा माटे महान
योद्धासमान रक्षक छे, ने आनंदनो दातार छे.
* स्वसंवेदनमां आवेलो शुद्ध आत्मा ते ज मारो छे. बीजुं कांई पण मारुं नथी,–
एम शुद्धात्मा सिवाय सर्वत्र ममत्वनो अभाव ते त्यागधर्म छे. श्रुतनुं प्रवचन,
शास्त्रदान वगेरे पण आ त्यागधर्मना पोषक छे.
* शुद्ध चैतन्य एक ज मारो छे, बीजुं किंचित्त् मारुं नथी, आवी अकिंचनरूप
चैतन्यभावना वडे देहादि समस्त परद्रव्यो प्रत्ये ममत्वनो त्याग ते अकिंचनधर्म छे.
* ब्रह्मस्वरूप आत्माना आनंदना अतीन्द्रिय स्वादना बळे बाह्य विषयोमांथी
वृत्ति ज ऊडी जवी ते उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे. विशुद्ध बुद्धिना बळे एवी निर्विकार
भावना थई जाय के देवी ललचावे तोपण विकारनी वृत्ति न थाय ने माता के
बहेनवत् निर्विकार भावना रह्या करे; एवा जीवने उत्तम ब्रह्मचर्य छे.
उत्तमक्षमादिक आ दश धर्मने आराधनारा सन्तोने अत्यंत भक्तिपूर्वक
आराधीए, अने तेमना जेवी आराधनाना दीवडा आत्मामां प्रगट करीए....ए
ज भावना.
आ सिंह अने सर्प छे के–अरे मनुष्यो! अमे तीर्यंच
होवा छतां, आ भगवान सर्वज्ञदेवना मार्गनी परम
भक्तिपूर्वक उपासना वडे सम्यक्त्व पामीने आत्माने
अनुभवीए छीए, तीर्यंचपणुं भूलीने सिद्ध जेवो अनुभव
करीए छीए....तो तमे तो मनुष्य छो.....तमे पण आवो
अनुभव केम नथी करता! अमे सिंह अने सर्प जगतमां कू्रर
गणाईए छतां भगवाननी वाणीना प्रतापे फ्रूररस छोडीने
परम शांतरसने पाम्या.....तो तमे तो भगवाननी जेम
मनुष्य छो....कषायनो कलुषरस छोडीने चैतन्यना परम उपशांतरसने अनुभवो.
सिंह अने सर्पनी आ वात सांभळीने बालविभागना सभ्यो कहे छे के वाह! वनराज!
अने सर्पराज! तमे बंने तीर्यंच गतिमां होवा छतां, केवा भक्तिभावपूर्वक भगवाननी सेवा करी
रह्या छो! ने धर्मनी आराधना करी रह्या छो! तमने धन्य छे. तिर्यंच होवा छतां तमे अमारा
साधर्मी बन्या छो. तमने देखीने अमनेय धर्मनी प्रेरणा अने वात्सल्यभाव जागे छे.