: आसो : २४९२ आत्म धर्म : ७ :
परम शांतिदातारी
आत्मधर्मनी सहेली लेखमाळा
(लेखांक: नं ४१) (अंक २७प थी चालु
भगवानश्री पूज्यपाद स्वामीरचित समाधिशतक उपर पू.
(वीर सं. २४८२ अषाड वद दसम)
आत्माने नहि देखनार बहिरात्मदर्शी बहिरात्मा शुं फळ पामे छे? ने अंतरमां
आत्माने देखनार अंतरात्मा शुं फळ पामे छे? ते बतावे छे–
देहान्तरगतेर्बीजं देहेस्मिन्नात्मभावना।
बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना।।७४।।
आ शरीर ते हुं छुं–एवी देहमां ज आत्मभावना ते नवा नवा शरीर धारण
करवानुं बीज छे, अने देहथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मामां ज आत्मभावना ते
देहरहित एवा विदेही सिद्धपदनुं कारण छे.
एककोर देहभावना, ने बीजीकोर आत्मभावना,–एम बे ज भाग लीधा छे.
रागादिभावोथी जे आत्माने लाभ माने छे तेने पण खरेखर देहमां ज आत्मभावना छे;
रागथी जेणे लाभ मान्यो तेने ते रागना फळमां जे जे संयोग मळशे तेमां पण ते
आत्मबुद्धि करशे. ने तेथी नवा नवा देहने धारण करीने संसारमां रखडशे. पण अरे! हुं तो
रागथी पार, ने देहथी पार चैतन्यतत्त्व छुं–एवी आत्मभावना करवी ते मोक्षनुं कारण छे.
जुओ, अत्यारे तो राजा वगरना राज जेवुं थई गयुं छे, जैनधर्मना नामे लोको
जेने जेम फावे तेम मनावी रह्या छे. अरे! आ पंचम काळमां अत्यारे तीर्थंकर–केवळी–
आचार्य–उपाध्याय ने साधु ए पांचनो विरह पड्यो, ने अनेक जीवो स्वच्छंद पोषनारा
विराधक पाक्या...शास्त्रना पण