Atmadharma magazine - Ank 275a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्म धर्म : आसो : २४९२
नथी–एवा भानपूर्वक आकिंचन्यधर्म होय छे. अहीं मुख्यपणे मुनिनी भूमिकाना धर्मनी
वात छे एटले अस्थिरताना रागरूप वस्त्रादिनुं ममत्व पण तेमने होतुं नथी, घर–
वस्त्र–स्त्री–धन वगेरेनो तो तेमने राग ज छूटी गयो छे, ने तेनो बहारमां पण त्याग
छे. शिष्य वगेरेना ममत्वनो पण मुनिने त्याग, तेनो विकल्प छूटीने स्वरूपमां
एकाग्रता–एनुं नाम उत्तम अकिंचन धर्म छे, ने ते मोक्षनुं कारण छे. धर्मीने चोथा
गुणस्थाने सम्यग्दर्शनमां पण अकिंचन एवा ज्ञायकस्वभावनुं भान तो थयुं छे एटले
श्रद्धाअपेक्षाए तो अकिंचनधर्म तेने छे. हुं ज्ञायकभावमात्र छुं, मोहनो एकअंश पण
मारो नथी ने परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारुं नथी–आवी शुद्धचैतन्यनी अनुभूति
उपरांत तेमां विशेष लीनतावडे एवो वीतरागभाव प्रगटे के अस्थिरतारूप ममत्व
परिणाम पण न थाय,–एनुं नाम अकिंचन्य धर्म छे.
(१०) उत्तम ब्रह्मचर्यनुं स्वरूप
ब्रह्मस्वरूप आत्मा तेना आनंदमां लीन मुनिवरोने बाह्यविषयोथी अत्यंत
विरक्ति होय छे, एटले स्त्री संबंधी रागवृत्ति ज थती नथी एने उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मनी
आराधना होय छे. आवो ब्रह्मचर्यधर्म सम्यग्दर्शनपूर्वक ज होय छे. जेने सम्यग्दर्शन न
होय, आत्मानुं भान न होय, ने परमां सुखबुद्धि होय, रागमां सुखबुद्धि होय,
विषयोमां सुखबुद्धि होय, तेने निर्विषय एवो ब्रह्मचर्यधर्म होतो नथी. अने आत्मानुं
भान होय, विषयोमां सुखबुद्धि छूटी गई होय, छतां जेटलो स्वस्त्रीआदि प्रत्येनो
रागभाव छे तेटलुं पण अब्रह्मचर्य छे; स्वरूपमां लीन मुनिवरोने एवो राग पण होतो
नथी. आवी आत्मलीनतानुं नाम ब्रह्मचर्य छे. ज्यां पोताना चैतन्यना अतीन्द्रियरूपने
देखवामां मशगुल छे त्यां स्त्रीना रूपने देखवानो राग क्यांथी थाय? ए जडनुं ढींगलुं
छे. चैतन्यना अतीन्द्रियरूपनी रुचि थई ने तेमां लीनता थई त्यां आनंदनुं वेदन एवुं
प्रगट्युं के बाह्यविषयो तरफ वृत्ति ज थती नथी. बाह्यविषयोमां स्त्रीने मुख्य गणीने
तेनी वात करी छे. सर्व प्रकारथी स्त्रीसंगनो त्याग ने चैतन्यना आनंदमां लीनता ते
ब्रह्मचर्य छे. रणसंग्राममां हजारो योद्धाने जीती लेनारा शूरवीर पण स्त्रीना एक कटाक्ष
वडे वींधाई जाय छे,–माटे कहे छे के एवा शूरवीरने अमे शूरवीर कहेता नथी; खरो
शूरवीर तो ते छे के जे आत्मज्ञानी विषयोथी विरक्त थयो छे ने स्त्रीना कटाक्षबाणवडे
पण जेनुं हृदय वींधातुं नथी; एवा जीवने उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म होय छे.
आ प्रमाणे उत्तमक्षमाथी शरू करीने उत्तम ब्रह्मचर्य सुधीनां दश धर्मो कह्या तेने
परम भक्तिथी जाणवा, आवा धर्मना धारक मुनिओ प्रत्ये धर्मीने परम भक्ति–बहुमाननो
भाव आवे छे. ने पोते पण आत्माना भानपूर्वक क्रोधादिना त्यागवडे ते धर्मनी आराधना
करे छे. एवी आराधना ते मोक्षनुं कारण छे. एवी धर्मनी आराधनानुं आ पर्व छे.
– जय जिनेन्द्र