: आसो : २४९२ आत्म धर्म : ५ :
ते उत्तम तप छे. धर्मात्मा पोताना चैतन्यना परम आनंदने साधवामां मशगुल होय
त्यां आलोकना के परलोकना भोगोनी वांछा तेने होती नथी, तथा शत्रु–मित्रमां
समभाव छे, अनुकूळता प्रतिकूळतामां समभाव, सोनुं के तरणुं तेमां समभाव निंदा
प्रशंसामां तेमज जीवन–मरणमां पण समभाव करीने, रागद्वेष रहित उपयोगने
निजस्वरूपमां थंभावे ते मुनिने उत्तम तप छे. आवा तपवडे आनंदनी वृद्धि थाय छे ने
विभावपरिणतिना संस्कार छूटे छे. आ रीते उपयोगने शुद्ध करीने स्वरूपमां थंभावे छे,
अत्यंत बळपूर्वक उपयोगने लीन करे छे, ते परम तपधर्म छे.
भेद अपेक्षाए तेना बार प्रकार छे. पण ते बधामां आवी उपयोगनी शुद्धि साथे होय
तो ज साचो तप कहेवाय. मुनिवरो आवा तपनी आराधनावडे पोताना आत्माने शुद्ध करे छे.
(८) उत्तम त्यागधर्मनुं स्वरूप
आजे दशलक्षणपर्वमांआठमो दिवस उत्तम त्यागधर्मनो छे. त्याग एटले
ममत्वनो अभाव, ज्ञानदर्शनमय पोतानो शुद्धआत्मा, एना सिवाय समस्त अन्य
भावोने पोताथी भिन्न जाणीने छोडवा ते उत्तम त्यागधर्म छे. ज्यां रागादिमां ममत्व
होय, रागथी धर्म थवाथी बुद्धि होय, पुण्यना फळमां मीठास होय, त्यां त्यागधर्म होतो
नथी. अंतरमां शुद्धात्माना अनुभवने लीधे संसारथी, शरीरथी ने भोगोथी जे अत्यंत
विरक्त छे, अने ते संबंधी राग–द्वेष जेने थता नथी, तेना निर्मळ परिणामने त्यागधर्म
कहे छे. चैतन्यमां लीनता वगर भोगथी विरक्ति थाय नहि. ज्ञान विना त्याग नहि.
मुनिओने मिष्ट आहारनुं के पींछी–कमंडळनुं के स्थान वगेरेनुं ममत्व होतुं नथी. ज्यां
देहनुं ज ममत्व नथी त्यां बीजानी शी वात! समस्त बाह्य भावोथी विरक्त थईने
परिणति अंतरस्वरूपमां वळी गई छे. परभावथी पाछो वळीने निजस्वभावमां एकाग्र
थयो, तेमां बधा प्रकारनो त्याग समाई गयो. आत्मानो स्वभाव ज्ञान–दर्शन–आनंदथी
परिपूर्ण छे, ने सर्वत्र ममत्व वगरनो छे,–आवा स्वभावना अनुभवना बळे राग–
द्वेष–मोहरूप ममत्व परिणाम छूटी गया, ते ज उत्तम त्यागधर्म छे. अहो, आवा त्याग
धर्मवंत संत, तेना चरणमां नमस्कार छे.
पोताना आत्मानुं सुख जेणे देख्युं होय ने परमां सुखबुद्धि जेने छूटी गई होय
तेने ज त्यागधर्मनी आराधना होय छे. परमां ने रागमां जे सुख माने ते तेनो त्याग केम
करे? एने तो परभावना ग्रहणरूप मिथ्यात्वनुं सेवन छे. पहेलां तो सम्यग्दर्शननी
आराधनावडे मिथ्यात्वनो त्याग करे, पछी चारित्रदशा प्रगट करतां राग–द्वेषनो पण त्याग
थाय ते वस्त्रादि बहिरंग परिग्रह पण छूटी जाय.–आ रीते उत्तम त्यागधर्म होय छे.
(९) उत्तम आकिंचन्यधर्मनुं स्वरूप
‘अकिंचन’ एटले कंई पण मारुं नथी’ एवी भावनारूप परिणति.
ज्ञानदर्शनमय शुद्धआत्मा एक ज मारो छे ने बीजुं कांई मारुं